ग़ज़ल
सवालों का तो मंजर है अभी तक l
कोई मुखिया निरुत्तर है अभी तक ।।
उसे इल्जाम का डर है अभी तक ।
कहीं सच्चा सुख़नवर है अभी तक ।।
ग़रीबी और बढ़ती जा रही है ।
यहाँ आबाद अंतर है अभी तक ।।
वहाँ भी देखिए साहब दिवाली ।
जहां इंसान बेघर है अभी तक ।।
वतन को छोड़, ढूढो काम तुम भी ।
यहां का हाल बदतर है अभी तक ।।
ऐ बादल तू बरस आकर किसी दिन ।
जमीं यह भी तो बंजर है अभी तक ।।
न जाने कितनी नदियां हैं समाईं ।
मगर प्यासा समंदर है अभी तक ।।
कटेंगे वो शज़र इस मुल्क में फिर ।
सुकूँ जिनसे मयस्सर है अभी तक ।।
लुटेगा देश कुछ दिन और शायद ।
तेरे हाथों में खंजर है अभी तक ।।
सिसकती भूख से , वो बस्तियां हैं ।
वतन का ये मुकद्दर है अभी तक ।।
नया कुछ भी नहीं पाया हूँ यारो ।
यहां भगवा में खद्दर है अभी तक ।।
— डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
बहुत सुंदर और सटीक