गांधी और ख़लीफत – भाग 2 – ‘पुराने जमाने’ की खलीफत को गांधी का समर्थन
वस्तुतः जिस तरह 1919 से 1924 ई. के बीच गाँधीजी ने खलीफत, इस्लाम, तुर्क-ऑटोमन साम्राज्य, तुर्की सुलतान की ‘जरूरतें’, हिन्दू-मुस्लिम इतिहास या संबंध, हिंसा और अहिंसा की व्याख्या आदि की – उन सब को एकत्र करके पढ़ते ही साफ हो जाता है कि गाँधीजी में और जो रहा हो, कोई सुसंगत दर्शन या जरूरी मामूली जानकारियाँ तक नहीं थी। न उन में राजनीतिक नेतृत्व करने की कोई योग्यता थी। इसलिए भी, खलीफत आंदोलन में गाँधी और कांग्रेस के जुड़ने के बाद भारत को, विशेषकर हिन्दुओं को यदि कुछ मिला, तो केवल विध्वंस, वीभत्स अत्याचार, ग्लानि व अपमान। वह भी उन लोगों के हाथों जिन के लिए बेचारे हिन्दू उस में गाँधी के आग्रह से शामिल हुए थे! क्या इस का हिसाब नहीं होना चाहिए था? क्या इसी से बचने के लिए खलीफत आंदोलन की शताब्दी से नजरें चुराई जा रही हैं?
भारत में गाँधीजी के संपूर्ण राजनीतिक कैरियर में उन्होंने तीन सब से बड़े आंदोलन छेड़े – पहला, खलीफत-असहयोग आंदोलन (1919); दूसरा, नागरिक अवज्ञा आंदोलन (1930); और तीसरा, भारत छोड़ो आंदोलन (1942)। इस में केवल “खलीफत-असहयोग आंदोलन” में कुछ समय के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता देखी गई। प्रो. आई. एच. कुरैशी जैसे बड़े मुस्लिम इतिहासकार ने भी इसी आंदोलन में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच ‘संक्षिप्त हनीमून’ का उल्लेख किया है। वरना कुरैशी के अनुसार, भारतीय मुसलमानों ने इस अवधि को छोड़कर कांग्रेस के किसी राष्ट्रीय आंदोलन में कभी भाग नहीं लिया।
खलीफत-असहयोग कुछ भारतीय मुसलमानों ने शुरू किया था। न तो कांग्रेस, न ही गाँधी ने उसे आरंभ किया था। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी मुख्यतः भारत के अप्रवासी मुसलमानों के बीच ही काम करते रहे थे। शायद इसी से उन्हें लगा हो कि वे भारत में भी उसी तरह मुसलमानों की सेवा कर अपने साथ कर सकेंगे। या फिर गाँधी केवल सस्ते में मुसलमानों का समर्थन पाने के लोभ से उस में जुड़े। कारण जो रहा हो, मुसलमानों की पहले से चल रही खलीफत-असहयोग गतिविधियों में गाँधी उत्साह से जुड़ गए। फिर दबाव देकर कांग्रेस को भी जोड़ा। यह कह कर कि इस से जो हिन्दू-मुस्लिम एकता बनेगी, उस से ‘एक साल में’ ही स्वराज मिल जाएगा!
निस्संदेह, यह एक जबर्दस्त प्रलोभन था। इसीलिए जल्द ही (सितंबर 1920) गाँधी अखिल भारतीय होम रूल लीग के अध्यक्ष बन गए। तत्कालीन कई कांग्रेस नेताओं की वरिष्ठता, अनुभव, ज्ञान, आदि को देखते हुए इसे गाँधी द्वारा किया गया ‘राजनीतिक तख्तापलट’ भी कहा गया है। अगले ही वर्ष दिसंबर 1921 के अहमदाबाद अधिवेशन में कांग्रेस ने गाँधीजी को ‘डिक्टेटर’ नियुक्त किया जिन के हाथ में ‘आल इंडिया कांग्रेस कमिटी के संपूर्ण कार्यकारी अधिकार’ दे दिए गए। इसे तख्तापलट कहना बहुत गलत नहीं लगता। जिस का कोई प्रावधान कांग्रेस में न था, वह पद गाँधी को दे दिया गया, जिन्होंने अभी अपना पहला आंदोलन शुरू ही किया था और जो अधर ही में था। इस प्रकार, खलीफत में कांग्रेस को जोड़ना न केवल गाँधी का अखिल भारतीय स्तर पर सब से पहला राजनीतिक कदम था, बल्कि वह ऐसा मास्टर-स्ट्रोक मान लिया गया कि जल्द ही उन्हें कांग्रेस में तानाशाही अधिकार मिल गए।
लेकिन, दुर्भाग्यवश, गाँधी इस्लामी इतिहास और राजनीति के क.ख.ग. से भी अनजान थे। इसीलिए उन्होंने खलीफत नेताओं की वैचारिकता जानने-समझने की कोई फिक्र नहीं की। खलीफत नेता मौलाना अब्दुल बारी, मुहम्मद अली, शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद, मौलाना महमूद-उल-हसन, आदि सभी घोर मध्ययुगीन कट्टरपंथी थे। मौलाना अली और मौलाना आजाद ने तो 1920 ई. में भारत को ‘दारुल-हर्ब’ बताकर मुसलमानों के लिए ‘हिजरत’ करने, यानी मुस्लिम शासन वाले देश में चले जाने का फतवा भी जारी किया था। उस में 5 लाख से अधिक भारतीय मुसलमानों ने अफगानिस्तान का रास्ता पकड़ा था। बाद में अधिकांश वापस लौटे, मगर इस आवा-गमन में काफी मुसलमान मरे भी। ऐसे मुस्लिम नेताओं की सेवा में गाँधी लगे हुए थे! उन्होंने मुहम्मद अली से पहली ही भेंट में ‘लव एट फर्स्ट साइट’ जैसी मुहब्बत हो जाने की बात कही थी। जिस मुहम्मद अली ने जल्द ही घोषित किया कि ‘‘मैं गिरे से गिरे और बदकार मुसलमान को भी गाँधी से बेहतर मानता हूँ’’, ऐसे कट्टरपंथी इस्लामी नेताओं के प्रति गाँधी में किसलिए प्रेम उमड़ा था! फिर, उन्हें खलीफा, इस्लामी या तुर्की सल्तनत से क्या लेना-देना था?
इतिहासकार मुकुल केशवन के अनुसार, खलीफत में गाँधी के जुड़ने का महत्वपूर्ण कारण यह था कि इस के सहारे वे कांग्रेस नेतृत्व पर कब्जा जमाना चाहते थे। केशवन के शब्दों में, “कांग्रेस का समर्थन लाने का वादा करके उन्होंने खलीफतवादियों का समर्थन लिया, और मुसलमानों का समर्थन मिलने का वादा करके उन्होंने कांग्रेस को अपनी मुट्ठी में किया, जबकि वे कांग्रेस के सदस्य तक नहीं थे, न कांग्रेस के किसी चुनाव में उम्मीदवार भी बने थे। कुछ समय के लिए तो गाँधी को जबर्दस्त सफलता मिली, किन्तु दूरगामी रूप से इस दुस्साहसी तख्तापलट ने उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन को अतुलनीय हानि पहुँचाई।” (द टेलीग्राफ, 26 जून 2005) गाँधी में सामान्य इतिहास की भी जानकारी का अभाव तो उनकी आत्मकथा में स्वयं स्वीकार किया गया है। पर खलीफत जिहाद में उत्साहपूर्वक भाग लेना गाँधी के अज्ञान का खतरनाक स्तर दर्शाता है। उस समय यह सामान्य जानकारी थी कि मुसलमानों के खलीफा के रूप में तुर्की सुलतान के दिन लद चुके। तुर्क-ऑटोमन साम्राज्य मृतप्राय हो चुका था। जिन्ना ने भी साफ कहा था कि खलीफत ‘पुराने जमाने’ की चीज है और उस का साम्राज्य अब बना नहीं रह सकता।
वैसी गुजरे जमाने की साम्राज्यवादी सत्ता बचाने में केवल भारत के कुछ कठमुल्ले लगे थे (किसी अन्य मुस्लिम देश में भी ‘खलीफत आंदोलन’ नहीं हुआ था)। उस में शामिल हो जाने की बड़ी भारी कीमत भारत को चुकानी पड़ी। वस्तुतः चौरी-चौरा कांड (5 फरवरी 1922) के बहाने गाँधी ने जब आंदोलन वापिस लिया तो कारण यही था कि उन्हें व्यर्थ लड़ाई की वास्तविकता समझ आ गई थी। वरना, जो आंदोलन पहले ही से उग्र हिंसक चल रहा था, जिस में गाँधी मुसलमानों के लिए ही शामिल हुए थे, तब उनसे बिना विचार किए उसे वापस लेने की कोई तुक नहीं थी। फिर, यदि खलीफत ‘मुसलमानों की गाय’ थी, तो उसे बचाए बिना गाँधी का आंदोलन वापस लेना उस गाय को मरने छोड़ देना ही हुआ! लेकिन गाँधी के सामने तथ्यों या विवेकपूर्ण सवालों का कभी महत्व नहीं रहा। ऐतिहासिक रूप से खलीफत आंदोलन इतनी हालिया चीज है जिस के दस्तावेज, घटनाक्रम कोई स्वयं परख सकता है। निस्संदेह, खलीफत जैसी मृतप्राय, विदेशी, साम्राज्यवादी इस्लामी सत्ता के लिए यहाँ मुसलमानों में आवेश पैदा कर, उस में हिन्दुओं को भी झोंक कर, तथा उस के सहारे ‘फौरन स्वराज’ ले लेने का प्रलोभन देकर गाँधी ने जो आँधी पैदा की, उस से समाज में गहरी दरार पड़ी। जिन्ना ने गाँधी को सही चेतावनी दी थी कि मुल्ले-मौलवियों को राजनीतिक मंच पर लाकर वे बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं। ( जारी… )
– डॉ. शंकर शरण (३१ अक्तूबर २०१९)