इतिहास

गांधी और ख़लीफत – भाग 3 – असहयोग आंदोलन था खलीफत के लिए!

गाँधी-वाङमय को उलटें तो एक से एक आश्चर्यजनक तथ्य उभरते हैं। “संपूर्ण गाँधी वाङमय” के खण्ड 18 से 1919 ई. की गतिविधियों, वक्तव्यों का सिलसिलेवार विवरण मिलता है। 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में जलियाँवाला कांड हुआ था। परन्तु आश्चर्य कि इस पर गाँधी को कोई विशेष दुःख, चिन्ता या आक्रोश हुआ नहीं मिलता। बल्कि वे एक स्थल पर यह कहते हुए मिल जाते हैं कि यदि जलियाँवाला बाग में उपस्थित सभी लोग भी मार डाले जाते, तब भी बाकी भारतवासियों को समान्य, शान्त बने रहना चाहिए! लेकिन 1919 से अगले तीन वर्ष तक गाँधीजी के “खलीफत आंदोलन” संबंधी अनेक वक्तव्य, पत्र, सर्कुलर, संपादक के नाम पत्र, अपील, प्रार्थना और खलीफत नेताओं की व्यक्तिगत चिन्ता संबंधी अनगिनत सामग्रियाँ पढ़ने को मिलती हैं। इसका शतांश भी जलियाँवाला बाग के बलिदान हुए लोगों के लिए नहीं मिलता! गाँधी के लिए जलियाँवाला कांड कोई मुद्दा न था। तुलना में खलीफत आंदोलन और उनके नेताओं की फिक्र उन्हें बहुत अधिक थी। (गाँधी वाङमय के खंड 18 से 27 तक, यानी मई 1919 से मार्च 1924 तक की उनकी गतिविधियों, लेखन, भाषण, आदि में सब से अधिक बार-बार आने वाली चिंता और विषय “खलीफत” थी।)

बहरहाल, खलीफतवादियों ने 17 अक्तूबर 1919 को ‘खलीफत दिवस’ मनाने का निश्चय किया था। गाँधीजी ने उसका अपनी ओर से काफी प्रचार किया और समर्थन जुटाने के प्रयत्न किये। फिर दिल्ली में 23 नवंबर 1919 को ‘अखिल भारतीय खलीफत कांफ्रेंस’ आयोजित हुई। इसमें भी गाँधी जी ने अध्यक्षता भी की थी। पुनः 19 मार्च 1920 को ‘खलीफत दिवस’ मनाया गया और जून 1920 में सर्वदलीय सभा आयोजित हुई। उसी में “असहयोग आंदोलन” तीव्र करने की रूपरेखा बनी, जिस में ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई उपाधियाँ लौटाने; सरकारी नौकरियों का बहिष्कार करने; सरकार को टैक्स न देने के प्रसिद्ध आह्वान किए गए थे।

“असहयोग आंदोलन” संबंधी ये आवाहन स्कूल-कॉलेज के हमारे इतिहास पाठों में खूब पढ़े-पढ़ाए जाते हैं, मगर असली बात छिपाकर कि यह सब “खलीफत” के लिए किया गया था, न कि स्वतंत्रता के लिए। डॉ. भीमराव अंबेदकर ने अपनी पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ (1940) में लिखा कि “सचाई यह है कि ‘असहयोग आंदोलन’ का उदगम ‘खलीफत आंदोलन’ से हुआ था, न कि स्वराज्य के लिए कांग्रेसी आंदोलन से। खलीफतवादियों ने तुर्की की सहायता के लिए इसे शुरू किया था और कांग्रेस ने उसे खलीफतवादियों की सहायता के लिए अपनाया था। उसका मूल उद्देश्य ‘स्वराज’ नहीं, बल्कि ‘खलीफत’ था और स्वराज्य का गौण उद्देश्य बना कर उस से [बाद में] जोड़ दिया गया था, ताकि हिन्दू भी उस में भाग लें।” (डॉ. अंबेदकर, ‘संपूर्ण वाङमय’, खंड 15, जनवरी 2000, पृ. 138)

एनी बेसेंट ने लिखा, “यह स्मरण होगा कि महात्मा गाँधी ने मार्च 1920 में खलीफत की रक्षा में असहयोग को अन्य सवालों से अलग रखा था; किन्तु देखा गया कि खलीफत हिन्दुओं के लिए उतना लुभावना नहीं था।” इसीलिए 30-31 मई को बनारस में हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की बैठक में पंजाब में अत्याचार (जलियाँवाला) और कुछ और बातों को जोड़ दिया गया। कांग्रेस नेता और विद्वान कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने तो लिखा है कि “आम ग्रामीण हिन्दू जनता में खलीफत को ‘अंग्रेजों के खिलाफ’ आंदोलन मात्र समझने दिया गया, और कांग्रेस कार्यकर्ता जानबूझ कर तुर्की के खलीफा वाली बात छिपाते थे।”

इस प्रकार, ‘इस्लाम खतरे में’ का नारा देकर भारत के मुसलमानों में खलीफत के लिए भारी जोश और जुनून भरा गया। इस गतिविधि में सन् 1919 से 1922 ई. के बीच गाँधीजी और कांग्रेस की प्रत्यक्ष भागीदारी थी, लेकिन अंततः जब खलीफत खत्म हो गई तो यहाँ मुसलमानों ने अपना सारा क्षोभ और रोष हिन्दुओं पर उतारा। केवल केरल के मालाबार में नहीं, बल्कि पूरे भारत में, जहाँ भी उन की ताकत थी। इतिहासकार स्टैनले वोलपार्ट ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘जिन्ना ऑफ पाकिस्तान’ (1984) में लिखा है कि खलीफत के खात्मे का गुस्सा संपूर्ण भारत में मुसलमानों ने हिन्दुओं पर निकाला। सामूहिक हत्याएं, बलात्कार, जबरन धर्मांतरण, वीभत्स अंग-भंग, और ऐसे-ऐसे क्रूर अत्याचार किए जिन्हें लिखना दूभर है। कांग्रेस अध्यक्ष रहे महान विधिवेत्ता सर सी. शंकरन नायर ने अपनी पुस्तक “खलीफत क्वेश्चनः गाँधी एंड एनार्की” (1922) में लिखा, ‘‘मालाबार में (मोपला मुसलमानों ने) स्त्रियों पर जो क्रूरता की उस जैसा मेरी स्मृति में इतिहास में कोई उदाहरण नहीं है। वे इतने भयावह हैं कि लिखने योग्य नहीं।’’

मगर खलीफत आंदोलन के इस्लामी साम्राज्यवादी उद्देश्य को समर्थन देकर आखिर गाँधीजी ने क्या पाया? उनके अपने शब्दों में सुनिए। महादेव भाई के सामने 18 सितंबर 1924 को गाँधी कहते हैं, ‘‘मेरी भूल? हाँ, मुझे दोषी कहा जा सकता है कि मैंने हिन्दुओं के साथ विश्वासघात किया। मैंने उनसे कहा था कि वे इस्लामी पवित्र स्थानों की रक्षा के लिए अपनी संपत्ति व जीवन मुसलमानों के हाथ में सौंप दें। और इस के बदले मुझे क्या मिला? कितने मंदिर अपवित्र किए गए? कितनी बहनें मेरे पास अपना दुःख लेकर आईं? जैसा मैं कल हकीमजी [अजमल खाँ] को कह रहा था, हिन्दू स्त्रियाँ मुसलमान गुंडों से मर्मांतक रूप से भयभीत हैं। मुझे … का एक पत्र मिला है, मैं कैसे बताऊँ कि उसके छोटे बच्चों के साथ क्या दुराचार किया गया? अब मैं हिन्दुओं को कैसे कह सकता हूँ कि वह हर चीज को धैर्यपूर्वक स्वीकार करें? मैंने उन्हें भरोसा दिलाया था कि मुसलमानों के प्रति मैत्री का सुफल प्राप्त होगा। मैंने उन्हें कहा था कि वे बिना परिणामों की इच्छा के मुसलमानों को मित्र बनाने का प्रयास करें। उस भरोसे को पूरा करने की सामर्थ्य मुझ में नहीं है। और फिर भी मैं आज भी हिन्दुओं से यही कहूँगा कि मारने की अपेक्षा मर जाएं।’’ (यंग इंडिया, 23 अक्तूबर 1924)

इस भयावह अनुभव के बाद भी गाँधी इस्लामी आक्रामकता के सामने हिन्दुओं के ससम्मान जीने का मार्ग नहीं खोज पाए। वस्तुतः उस दारुण ‘भूल-स्वीकार’ के बाद उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिए थी। वह नैतिक व देश-हितकारी होता। उन तमाम हिन्दू हत्याओं, बलात्कारों के जिम्मेदार गाँधी भी थे, क्योंकि खलीफत-समर्थन में अकेले उन्होंने ही जिद कर के कांग्रेस को झोंका था। उसके भयावह परिणामों के बाद उन्हें देशवासियों के साथ अपने नौसिखिए प्रयोग फिर करने का कोई अधिकार न था, लेकिन गाँधी आगे भी चौबीस वर्ष तक, आजीवन उसी तुष्टीकरण पर चलते रहे। भारत के लिए, विशेषकर हिन्दुओं के लिए वैसे ही फिर कुफल लाते रहे! मुस्लिम लीग का ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत’, ‘डायरेक्ट एक्शन’, देश-विभाजन और लाखों-लाख हिन्दुओं का संहार एवं शरणार्थियों में बदल जाना। यह सब उस गाँधीवादी, दिगभ्रमित राजनीति की भी देन थी, जो खलीफत आंदोलन के सक्रिय समर्थन से शुरु हुई थी।

दुर्भाग्यवश कांग्रेस ने अपने ‘डिक्टेटर’ नेता को उस भयंकर भूल का कोई सांकेतिक दंड भी नहीं दिया। न नेता ने कोई प्रायश्चित किया, न अपने में कोई सुधार। फलतः जो अवसरवादी – और इस्लामी मामलों में, मतिहीन – राजनीति गाँधीजी ने खलीफत से शुरू की, वही आगे भी चलती रही। बल्कि एक घातक परंपरा बन गई। यह परंपरा, कि मुसलमानों की किसी भी माँग का विरोध नहीं होगा, उन्हें उत्तरदायी या सेक्यूलर बनाने का प्रयत्न नहीं होगा, उन्हें संतुष्ट करने के लिए हिन्दू और राष्ट्रीय हितों की बलि दी जाती रहेगी। ( जारी… )

– डॉ. शंकर शरण (१ नवम्बर २०१९)