लघुकथा – चश्मा
“क्या हुआ माँ! आप फिर सुबह-सुबह शुरू हो गईं।” रिया बेडरूम से ज़ोर से चिल्लाई।
“तुम सो जाओ। मैं प्रीति को रसोई में मदद के लिए बुला रही थी। अभी तक सोकर नहीं उठी।”
रिया आँखें मलते हुए रसोईघर में आ गई और बोली, “बताओ, क्या मदद करनी है। मैं कर देती हूँ।”
“तुम क्यों करोगी, ये उसकी ज़िम्मेदारी है। ये उसका मायका नहीं ससुराल है और ससुराल के कुछ नियम, कायदे और उसूल होते हैं। कुछ भी नहीं सीखकर आई अपने घर से।” माँ गुस्से में बोली।
“माँ! चश्मा उतारो अपना….माँ! चश्मा उतारो अपना।” रिया माँ के कानों के पास जाकर ज़ोर से बोली।
“पागल हो गई है क्या? मैं कहाँ चश्मा पहनती हूँ। सुबह-सुबह कुछ भी उलजुलूल बोले जा रही है।
रिया उनकी बात काटते हुए बोली, “माँ, एक बात सुनो! अगर आपने लाल रंग का चश्मा पहन रखा है, तो आपको पूरी दुनिया लाल दिखाई देगी, अगर नीला चश्मा पहना है तो नीली दिखाई देगी, यानि जो चश्मा आपकी आँखों पर चढ़ा है आप उसी से दुनिया देखती हैं। मैं सही कह रही हूँ या गलत?”
“हाँ, सही कह रही हो पर मैंने तो कोई चश्मा नहीं पहना है।” माँ झुँझलाते हुए बोली।
रिया प्यार से उन्हें समझाते हुए बोली, “माँ! जब भी मैं कोई गलती करती हूँ, आप सहज रहती हैं। प्रीति भाभी ज़रा भी गलती करती हैं तो आप आसमान सिर पर उठा लेती हैं। मैं कैसे भी कपड़े पहनूँ, आप मना नहीं करती, परंतु जब प्रीति भाभी पहनती हैं तो आप शालीनता की दुहाई देने लगती हैं।
सही कहते हैं लोग कि सास कभी भी माँ नहीं बन सकती। जानती हैं क्यों? क्योंकि वह अपनी सास के उस चश्मे को पहन लेती है, जिसने उसमें सारी उम्र कमियाँ देखी थी। आपका भी यही हाल है। सारी ज़िंदगी दादी आपमें कमियाँ निकालती रहीं, जिसके लिए आप दुखी रहती थीं।
अब आप भी तो वही कर रहीं है ना माँ।
माँ प्लीज! अब आप दादी के उस चश्मे को अपनी आँखों से उतार दो।”
बेटी की समझदारी भरी बातों को सुनकर माँ अवाक् रह गई। आज उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया था।
— अनिता तोमर ‘अनुपमा’