नवगीत – संत्रासों का दास
कभी न सोचा क्या होगा कल
होता सिर्फ विकास रहा
बढ़ा प्रदूषण हद से ज्यादा
दूभर लेना साँस रहा
सीना तान के खड़े हो गये
कंकरीट के जंगल
जीवनदायी वृक्ष कहाँ गये
कैसे होगा मंगल
धूल कणों से भरी हवा है
गली -मुहल्ला खाँस रहा
दिनदूनी और रात चौगुनी
बडी़ प्रगति की हमने
किन्तु दैव को एक न भाई
आँख दिखाई है उसने
जीवन जीना कठिन हो गया
संत्रासों का दास रहा
हृदयाघात हुआ है पल में
किसी के गुर्दे हुये खराब
फिर भी छोड़ न पाये जर्दा
पीना ज़मके रोज़ शराब
दूर हो गये रिश्ते -नाते
दुखड़ा केवल पास रहा
महा बिषैली धुन्ध बढ़रही
मण्डल हुये प्रदूषित
अपने कर्मों का फल पाते
जल-ज़मीन-नभ कर दूषित
आँख दिखाता फिर धमकाता
घर -घर घूम विनाश रहा
जिधर देखिये मास्क लगाये
घूम रहे हैं लोग यहाँ
सच कह दूँ तो बुरा लगेगा
भोग रहे हैं भोग यहाँ
इससे प्राण बचेंगे कैसे
कभी न तनिक प्रयास रहा
कभी न सोचा क्या होगा कल
होता सिर्फ विकास रहा
बढ़ा प्रदूषण हद से ज्यादा
दूभर लेना साँस रहा
— जयराम जय