किस मोड़ पे आ के खडी है जिंदगी।
ख़्वाबों की लाश लगती है जिंदगी।
बिकने लगे हैं सत्य और ईमान इन दिनों,
कैसे होगी अच्छे बुरे की पहचान इन दिनों,
फरेब के साये में पलती है जिंदगी।
किस मोड़ पे आ के खडी है जिंदगी।
अस्मत के सौदे बने मुफलिसी की जरुरतें,
हर उसूल से बड़ी है आज,पेट की हसरतें,
अपनी परछाई से डरती है जिंदगी।
किस मोड़ पे आ के खडी है जिंदगी।
इंसानियत की निगाहों से इंसां गिरने लगे,
यहां प्यार और वफा के मकान गिरने लगे,
अपनी बेबसी पे हंसती है जिंदगी।
किस मोड़ पे आ के खडी है जिंदगी।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”