जीवन का सुख
मईया के श्रीचरणों में मैं, जब जब शीश झुकाता हूँ।
पता नहीं क्यूँ मानो जैसे, जीवन का सुख पाता हूँ।।
और पिता के चरण कमल पर, जब जब शीश झुकाया है।
भ्रमित हुआ मैं जब जब पथपर, सत्य मार्ग तब पाया है।।
श्रीगुरुवर की कृपाभाव का, वर्णन तो आसान नहीं।
जीवन सुरभित कर डाला जब, थी कोई पहचान नहीं।।
परमपिता को पुण्य नमन है, जिसने खेल रचाया है।
इसीलिए तो प्रभुवर को नित, श्रृद्धासुमन चढ़ाया है।।
पुण्य मही ये पुण्य गगन ये, भानु शशी की बातें हैं।
नदिया सागर तरु तरुवर की, नेह भरी सौगातें हैं।।
हे अरि मित्र मेरे प्रिय परिजन, पास जरा आ जाओ तो।
अपनों से अपनेपन की कुछ, राह जरा बतलाओ तो।।
नमन भोर का अर्पण प्रियवर, इतना तो उपकार करें।
नित नित का अभिवादन हे प्रिय, आप इसे स्वीकार करें।।
— ओम अग्रवाल (बबुआ)