मुक्तक
न मिथ्या, न किसी छल से ना ही भ्रम से पहुंचा हूं
मैं अपनी बुद्धि के बल से परिश्रम से पहुंचा हूं
कोई अनुदान न वरदान न कोई अनुकंपा
जो भी हूं जहां भी हूं अपने दम से पहुंचा हूं
बनके मीत साथी को सदा छलते यूं ही रहना
निराशाओं में पड़कर हाथ तुम मलते यूं ही रहना
दुआ भगवान से है बनके दीपक मैं रहूं जलता
जैसे जल रहे हो तुम सदा जलते यूं ही रहना
जमाने के कदम के साथ चलना क्यों नहीं आया
सरलता के सहज सांचे में ढ़लना क्यों नहीं आया
यूं जलते जलन की आग में हो तुम क्यों वर्षों से
तुम्हे बन प्रेम का दीपक जलना क्यों नहीं आया
देखा बस सुखों की धूप दुख की छांव न देखा
लगा डाला गलत ईल्जाम आव-ताव न देखा
यहां पहुंचा हूं मैं ऊंछाई पर तलवों को घिस-घिस के
मेरी परवाज देखी पर ये घायल पांव न देखा
विक्रम कुमार
मनोरा, वैशाली