मैं विटप
मैं विटप पल्लव विसर्जित
व्यथित विकल ,उदात्त तू
सन्ध्या सम्मुख श्रमिक भास्कर
विश्रमित दिन निश्छल है तू।
प्रतिदिन ही सन्ध्या होती
विह्वल तज दिवाकर को यहाँ
सानिध्य अवसर आज नहीं
कल होगा कब कैसा कहाँ।
गिर गए डालो से पत्ते
अब नहीं कुछ शेष है
कोटरें वीरान अब तो
शावकें भी निःशेष हैं ।
करती थीं निर्झर से बातें
पत्तियां उन्माद तब
फूलों पर ढुलमुल तुहीनें
सुरमई सी प्रभात तब।
आज हूँ बस अस्थिपंजर
शेष भी अवशेष हैं
बीते कल देखा जो सपना
उस कल की तू शुरुवात है।
जाता हूँ सम्बल समेटे
मुझमें अब न छाँव है
सोने को अब सारी दिशाएं
खो रहे मेरे ठाँव हैं ।।
— स्पृहा मिश्रा “असीम”