गजल
अधरों पर मुस्कान नही है।
जिंदा हूँ पर जान नही है ।
घोर अमा, तू दुखड़ो वाली !
तेरा कोई विहान नही है ?
क्या हूँ,कैसे हूँ,मैं क्यों हूँ ?
मुझको कुछ भी भान नही है।
भीड़ हो गया हूँ अब मैं भी,
अलग कोई पहचान नही है।
यहाँ सभी बस एक वहम में,
कोई मेरे समान नही है ।
अरे “गंजरहा” इन लाशों को,
महावस्त्र का ध्यान नही है ।
— डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी “गंजरहा”
आपको अनुस्वार लगाने में क्या समस्या है? आप “नहीं” को हमेशा ‘नही’ लिखते हैं।