ग़ज़ल
ये मुनासिब नहीं हर किसी से मिलें,
जो मुहब्बत करे बस उसी से मिलें।
नूर पैदा करें जुगनुओं की तरह,
उम्र भर के लिये रोशनी से मिलें।
हो गए आज हिन्दू-मुसलमां सभी,
ऐ ख़ुदा हम कहाँ आदमी से मिलें।
एक दिन आप-हम क्या न होंगे फ़ना,
दुश्मनी छोड़िये, दोस्ती से मिलें।
हमसफ़र हैं हज़ारों, मगर हमनवा,
एक भी हो अगर हम ख़ुशी से मिलें।
रूह में हम सभी की उतर जाएंगे
शर्त ये है कि हम सादगी से मिलें।
कुछ न कुछ तो ख़ुदा की करामात है,
हम कहीं भी गये, आप ही से मिलें।
रूह की प्यास अब तक बुझी ही नहीं,
लग रहा है ख़ुदाया तुझी से मिलें।
काम का रह गया है नहीं जिस्म अब,
क्यों न हम फिर नई ज़िन्दगी से मिलें।
अंजुमन में सुख़नवर न तन्हा मिला,
हम किधर मुख़्तलिफ़ शायरी से मिलें।
— आनन्द तन्हा
फ़ना=नष्ट होना, हमनवा=समान दृष्टिकोण वाला