विरहता
विरहता के समय
आती है यादें
रुलाती है यादें
पुकारती है यादें
ढूंढती है नजरे
उन पलों को जो गुजर चुके
सर्द हवाओ के बादलों की तरह
खिले फूलों की खुशबुओं से
पता पूछती है तितलियाँ तेरा
रहकर उपवन को महकाती थी कभी
जब फूल न खिलते
उदास तितलियाँ भी है
जिन्हे बहारों की विरहता
सता रही
एहसास करा रही
कैसी टीस उठती है मन में
जब हो अकेलापन
बहारें न हो
विरहता में आँखों
का काजल बहने लगता
तकती निगाहें ढूंढती
आहटों को जो मन के दरवाजे पर
देती थी कभी हिचकियों से दस्तक
जब याद आती
विरहता में
— संजय वर्मा “दॄष्टि”