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मनुष्यों की आदि सृष्टि भूगोल के किस स्थान पर हुई?

ओ३म्

हमारा यह संसार अत्यन्त विशाल है। संसार में हम पृथिवी के प्रायः सभी देशों को सम्मिलित करते हैं और इसे विश्व भी कहा जाता है। इस पूरे भूगोल में सबसे पूर्व मानव सृष्टि किस स्थान पर हुई थी? इस प्रश्न का उत्तर महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में दिया है। उन्होंने प्रश्न उपस्थित किया है कि मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई? इसका उत्तर देते हुए वह स्पष्ट कहते हैं कि त्रिविष्टप अर्थात् जिस को ‘तिब्बत’ कहते हैं। त्रिविष्टप अथवा तिब्बत नाम का स्थान संसार में केवल हिमालय स्थित तिब्बत है जो अब चीन के कब्जे में है। सृष्टि के आदि काल में तिब्बत भूगोल का एक स्थान था जिसका एक देश के रूप में नामकरण नहीं हुआ था। नामकरण तो मनुष्यों के उत्पन्न होने के कुछ काल बाद उनमें से कुछ शीर्ष विद्वान मनुष्यों द्वारा ही किया जाना सम्भव था। तिब्बत के जिस स्थान पर परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि की थी, सैकड़ों व सहस्रों वर्ष वहां स्त्री व पुरुष बड़ी संख्या में रहते रहे थे और उन्होंने ही वेदों के अध्ययन के आधार पर वेदानुयायी मनुष्यों की संज्ञा आर्यों के निवास के कारण देश को आर्यावत्र्त नाम दिया था। तिब्बत नाम का स्थान हिमालय क्षेत्र में स्थित वर्तमान तिब्बत प्रदेश ही है। आदि काल में सृष्टि का निर्माण पूरा हो जाने पर परमात्मा ने सर्वप्रथम तिब्बत में ही मनुष्यादि प्राणियों की प्रथम वार अमैथुनी सृष्टि की थी। इसका स्पष्ट प्रमाण महाभारत ग्रन्थ में प्राप्त होता है जिसका उल्लेख स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने महाभारत ग्रन्थ के आधार पर अपने ग्रन्थ में किया है। अन्य प्रमाणों से भी तिब्बत ही आदि मानव सृष्टि का स्थल वा स्थान सिद्ध होता है।

सृष्टि की आदि में सर्वव्यापक, सर्वज्ञ व सृष्टिकर्ता ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य एवं अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान उनकी आत्माओं में स्वयं जीव के भीतर व्यापक होने अर्थात् सर्वान्तर्यामी स्वरूप से दिया था। ईश्वर और जीवात्मा दोनों चेतन सत्तायें हैं। ईश्वर में सर्वव्यापकता एवं सर्वज्ञता है तथा सभी जीवात्माये एकदेशी होने सहित अल्पज्ञ है। दोनों सत्तायें ब्रह्माण्ड में साथ मिलकर रहती हैं। अतः ईश्वर को जीवात्मा को जो कहना, बताना होता है वह उसकी आत्मा में प्रेरणा द्वारा कहता व बताता है। इसका निभ्र्रान्त ज्ञान वा वर्णन ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों के वेदोत्पत्ति प्रकरण में किया है। परमात्मा का दिया गया वेदों का ज्ञान दिव्य ज्ञान है। इसकी भाषा भी अद्भुद है तथा व्याकरण (अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति) भी विशिष्ट है। वेदों में ईश्वर तथा जीवात्मा सहित सृष्टि का यथार्थ स्वरूप प्राप्त होता है। मनुष्य के कर्तव्यों एवं वैदिक परम्पराओं का ज्ञान भी वेदों के अध्ययन से ही प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ थे। उन्होंने कहा है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। उन्होंने वेदों का सभी मनुष्यों द्वारा अध्ययन किये जाने उसका प्रचार करने को मनुष्यों का परम धर्म बताया है। धर्म कर्तव्य को कहा जाता है। वेदों का अध्ययन व प्रचार परम धर्म इसलिये है क्योंकि मनुष्य के सभी कर्तव्यों का ज्ञान वेदों से होता है। वेदों से इतर अन्य किसी साधन व उपाय से मनुष्य के कर्तव्यों, मनुष्य जीवन के उद्देश्य, मनुष्य के लक्ष्य तथा उसकी प्राप्ति के उपयों का ज्ञान नहीं होता। यह समस्त ज्ञान चार वेद मनुष्यों को देते हैं।

वेदाध्ययन से ही मनुष्य सद्ज्ञानी बनता है तथा सच्चा धार्मिक बनता है। वेदों से विमुख मनुष्य न तो धार्मिक हो सकता है और न ही वह अपने जीवन के उद्देश्य, लक्ष्य तथा उसकी प्राप्ति का ज्ञान रखता है। वेद, वेदों का ज्ञान तथा वेदों के विद्वान ऋषि सृष्टि के आरम्भ से इस भारत भूमि में ही होते आयें हैं। वैदिक धर्म व संस्कृति की आद्य, मध्य व वर्तमान कर्मभूमि व क्रीड़ास्थली आर्यावर्त की भूमि तिब्बत व समस्त भारत भूमि ही रही है। यदि मनुष्यों की उत्पत्ति आर्यावत्र्त वा तिब्बत से बाहर किसी अन्य देश में हुई होती तो आदि सृष्टि में परमात्मा द्वारा मनुष्यों को दिया गया ज्ञान उसी देश में प्रचुरता से होना चाहिये था। तब भारत में वेदों का वह ज्ञान हो तो सकता था परन्तु वेदज्ञान की अधिकता आदि मानव के उत्पत्ति स्थान वा मूल देश में तथा अन्य देशों में वह ज्ञान उससे न्यून होना सम्भव था। हम दुनियां के किसी भी देश में वेदों के ज्ञान, वेदाध्ययन करने वाले ऋषियों की परम्परा तथा वैदिक साहित्य को भारत से अधिक नही पाते। यह सभी ज्ञान व ग्रन्थ तथा ऋषि आदि भारत में ही हुए हैं। इससे आदि सृष्टि में मनुष्यों की उत्पत्ति का स्थान जिसमें परमात्मा ने मानवों को उत्पन्न कर चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था, वह स्थान आर्यावत्र्त भारत में ही होना सम्भव होता है। मानव उत्पत्ति का वह आदि स्थान तिब्बत ही है जो उस समय आर्यावत्र्त का एक भाग था। यह बात इस लिये भी सत्य है कि संसार का भारत से इतर कोई देश अपने देश व उसके किसी स्थान को आदि सृष्टि में मानव की प्रथम उत्पत्ति का स्थान नहीं बताता। इससे सम्बन्धित कोई प्रमाण भी किसी अन्य देश में उपलब्ध होता।

सनातन वैदिक परम्परा के अनुसार वेदज्ञान 1.96 अरब वर्ष से कुछ अधिक प्राचीन है। इसके साथ ही भारत में आज भी वेदों के व्याख्यान चार ब्राह्मण ग्रन्थ, सृष्टि की आदि में राजर्षि मनु द्वारा प्रोक्त ‘मनुस्मृति’, 6 दर्शन, 11 वेदानुकूल प्रामाणिक उपनिषद ग्रन्थ, इतिहास ग्रन्थ रामायण एवं महाभारत, यह सभी भारत में ही रचे गये और वर्तमान में भी सुलभ हैं। रामायण ग्रन्थ तो 9 लाख वर्ष से कहीं अधिक प्राचीन है। इसका कारण है मर्यादा पुरुषोत्तम राम त्रेता युग में हुए थे। काल गणना करने पर त्रेता युग का समय 8.69 लाख वर्ष से पहले का समय है। त्रेता युग की कुल अवधि 12.96 लाख वर्ष की होती है। रामायण से यह तो विदित होता है कि रामचन्द्र जी त्रेता युग में हुए थे परन्तु यह विदित नहीं होता कि वह त्रेतायुग के किस मन्वतर में हुए थे। अतः यह सम्भावना है कि रामचन्द्र जी 12.96+8.64=21.60 लाख वर्ष व 8.69 लाख वर्ष के बीच की त्रेतायुग की अवधि में हुए हो सकते हंै। इतना अधिक पुराना धर्म व संस्कृति विश्व के किसी देश की नहीं है। किसी देश में इतने पुराने अवशेष व इतिहास भी नहीं है। अतः आदि मानव सृष्टि का स्थान प्राचीन आर्यावर्त व भारत का तिब्बत प्रदेश ही रहा है। यही सत्य है और विश्व को इसी स्थान को आदि मानव सृष्टि का स्थान स्वीकार करना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में इस स्थान का निश्चयात्मक कथन किया है। विश्व के सभी लोगों को इस सत्य को स्वीकार करना चाहिये।

महाभारत के अनुसार आदि मानव सृष्टि हिमालय पर मानसरोवर के निकट होने का उल्लेख मिलता है। स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी की पुस्तक ‘‘आर्ष दृष्टि” के एक लेख आदि मानव की जन्म भूमि’ में इसका उल्लेख हुआ है। स्वामी जी ने लिखा है ‘तुलनात्मक भाषा विज्ञान के जनक माने जानेवाले एडेलुंग (Adelung) की साक्षी से टेलर ने लिखा है-‘‘मनुष्यजाति की जन्मभूमि स्वर्ग तुल्य कश्मीर ही है। तिब्बत और कश्मीर को मिलाकर कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में गर्मी और सर्दी जुड़ती है।“

महाभारत में लिखा है-

हिमालयाभिधानोऽयं ख्यातो लोकेषु पावकः।

अर्धयोजनविस्तारः पंचयोजनमायतः।।

परिमण्डलयोर्मध्ये मेरुरुत्तमपर्वतः।

ततः सर्वाः समुत्पन्ना वृत्तयो द्विजसत्तमः।।

संसार में पवित्र हिमालय है। उसके अन्तर्गत आधा योजन चौड़ा और पांच योजन लम्बा मेरु है, जहां मनुष्यों की उत्पत्ति हुई। यहीं से ऐरावती, वितस्ता, विशाला, देविका और कुह आदि नदियां निकलती हैं। यह प्रमाण इस तथ्य का निश्चायक है कि आदिकाल में अमैथुनी सृष्टि में मनुष्योत्पत्ति के लिए परमेश्वर ने अपनी नर्सरी इसी क्षेत्र में तैयार की थी। जिस मेरु स्थान का महाभारत के उक्त श्लोकों में निर्देश किया गया है, उसी के पास देविका पश्चिमे पाश्र्वे मानसं सिद्धसेवितम्’ अर्थात् देविका के पश्चिमी किनारे पर ‘मानस’ (मानसरोवर) है जो तिब्बत के अन्तर्गत है।’ वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्यों के आदियुग में मानसरोवर के आसपास का क्षेत्र सम-शीतोष्ण जलवायु से युक्त था जो आदि मानव के उत्पत्ति स्थान के सर्वथा उपयुक्त था। महाभारत पांच हजार वर्ष पुराना इतिहास ग्रन्थ है। इसके लेखक ऋषि वेदव्यास थे। अतः यह प्रमाण ही सर्वथा विश्वसीय एवं प्रामाणिक है। इसी स्थान पर आदि मानव सृष्टि होना सम्भव था और इसी स्थान पर आदि मानव जो विश्व के सभी मनुष्यों के पूर्वज थे, उनकी अमैथुनी सृष्टि वा उत्पत्ति परमात्मा ने की थी। अतः तिब्बत के मानसरोवर स्थल में ही आदि मानव सृष्टि का होना प्रामाणिक है। ओ३म् शम्।                

मनमोहन कुमार आर्य