गजल
[ गजल ]
जुल्म की हद पे हमने की बगावत ।
गुलामी सी लगी,सहने की आदत ।
हम सलीके से करते हैं ऐ जालिम !
दोस्ती हो कि ,या फिर हो अदावत।
युद्धबंदी से हैं हालात मेरे,
हर तरफ साजिशें, गंदी सियासत।
आदमी ,आदमी को खा रहा है ,
लग रहा है कि आयेगी कयामत ।
जहर बन जायेगा,कल पाप का धन,
आज जो लग रहा तुमको नियामत ।
तू सब कुछ छोड़कर जायेगा गाफिल,
किसलिए कर रहा है तू किफायत ?
जालिमों के नगर में आ गया था ,
‘गंजरहा’ कब तलक करता शराफत?
——डॉ दिवाकर दत्त त्रिपाठी,24/11/19 गोरखपुर