मृगतृष्णा
मृगतृष्णा
एक छोटी मासूम सी लड़की, आँखों में कई सपने सँजोए हुए, अपनी ज़िंदगी की बढ़ती रफ़्तार को क़ाबू में किये हुए, एक मुक़ाम तक पहुँचने की इच्छा रखती थी। वह उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में रहती थी। उस समय पर गाँव में लड़कियों को ज़्यादा पढ़ाया-लिखाया नहीं जाता था। बस यह काफ़ी होता था कि वह घर के सारे काम-काज सीख जाए और यह बात कहीं जाकर शादी पर ही ख़त्म होती थी।
नीतू नाम था उस लड़की का, पापा की बड़ी लाड़ली थी तो सबके मना करने पर भी उसकी ज़िद के आगे पापा को झुकना पड़ा। उसको पढ़ने की इजाज़त आखिर मिल ही गई। हरिद्वार के पास एक गाँव था वह वहाँ पर अपने बहुत बड़े परिवार के साथ रहती थी। उसके परिवार में बाबा-दादी, माँ-पिताजी और नौ बहन-भाई थे।
उसके गाँव के पास से ही गंगा नदी भी निकलती थीं। नदी में इतनी फूलों की मालाएँ, प्लास्टिक की बोतलें, प्लास्टिक की थैलियाँ आदि न जाने कितनी चींजें बहकर पानी में आ जातीं थीं। इससे न सिर्फ़ नदी गंदी होती थी बल्कि उसके गाँव को भी गंदा कर जाती थीं। जो उसके मन को अंदर तक झकझोर कर रख देती थीं।
उसने कई बार इसके बारे में अपने पापा और अध्यापक जी से अनुरोध भी किया था कि हमें इस पर तुरंत विचार करना चाहिए नहीं तो भविष्य में हमारी नदियों को साँस लेने में समस्या का सामना करना पड़ेगा। परंतु उसकी बात पर उस समय किसी ने ग़ौर नहीं किया! ज़िंदगी अपनी रफ़्तार लिए हुए निरंतर बढ़ती जा रही थी।
ऐसे ही हँसते-खेलते बारहवीं भी पास कर ली उसने। अब इसके आगे की पढ़ाई करने के लिए गाँव से बाहर जाना था क्योंकि वहाँ पर कॉलेज नहीं था। तो यह तय किया गया कि अब इसकी शादी कर दो। अगर क़िस्मत में होगा तो आगे पढ़ लेगी वर्ना जैसी भगवान की मर्ज़ी।
उसकी शादी हरिद्वार में ही एक नौकरीपेशा व्यक्ति से कर दी गई। जो सिंचाई विभाग में कर्मचारी था। दिन बीतते गए वह अपने परिवार में व्यस्त होती चली गई। वह ज़िंदगी के तीन पड़ाव पूरे कर चुकी थी, परंतु उसे अपने प्रोजैक्ट को पूरा करने का मौक़ा ही नहीं मिल पा रहा था। समय बदलता जा रहा था और तेज़ी से भागा भी जा रहा था।
एक दिन वह बहुत उदास थी क्योंकि घर में सब अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त थे। उसने सोचा पापा से ही बात कर लेती हूँ। उन्हें बताती हूँ कि उनकी लाड़ों आज कितनी अकेली रह गई है और उसके सपने कैसे आँखों में ही दफ़्न होते जा रहे हैं?
फोन की घंटी की आवाज़ उसके कानों में अंदर तक चुभ रही थी। टिऱन-टिऱन …..
“पापा आपने झूट बोला था कि शादी कर लो उसके बाद जो तुम्हारे सपने हैं वे सब विनीत पूरे करा देगा।” नीतू फोन मिलने पर तुरंत शिकायतों का अंबार लगाती हुई पापा से….
“क्या हुआ मेरी बच्ची? आज इतने सालों बाद ऐसा प्रश्न!” पापा ने सहजता से पूछा
“हाँ पापा, आपको तो पता है कि बचपन में जो कुछ करने की सोच लेती थी वह पूरा करके ही मानती थी। आपने कहा शादी कर लो तुमको बहुत बढ़िया पति मिला है वह इसी डिपार्टमेंट में है जिस प्रोजैक्ट पर तुम काम करना चाहती हो तो! मैंने कहना मान लिया था। पर जब भी इस पर काम करने की सोचती हूँ कोई न कोई समस्या मेरे सामने खड़ी हो जाती है और मैं पीछे हट जाती हूँ।” नीतू शिकायत करती हुई..
“कोई बात नहीं अगर सपना पूरा नहीं हो पाया तो क्या? वैसे तो ख़ुश हो।” पापा समझाते हुए..
“पापा देखो न! आज़ नदियाँ कितनी दूषित होती जा रहीं हैं। मैंने विनीत से बोला भी कि इन्हें बचाने में मुझे भी अपना योगदान करने दो, यह मेरी बचपन की ख़्वाहिश है। कहने लगे काम करना था तो शादी नहीं करनी थी। वैसे मैं बहुत ख़ुश हूँ पर!” नीतू कहते हुए चुप हो जाती है।
“पर क्या? अपने परिवार में ख़ुश रहो! आज तो घर में रहते हुए भी इस काम को अंजाम दिया जा सकता है। फ़ेसबुक के ज़रिए से!” ख़ुश रहो! कहकर पापा फोन काट देते हैं।
बड़ा कौतूहल मचा उस दिन उसके दिमाग में और फिर कई सालों की मृगतृष्णा जो वह साथ लेकर चल रही थी धीरे-धीरे गति पकड़ने लगी फ़ेसबुक के माध्यम से।
मौलिक रचना
नूतन गर्ग (दिल्ली)