मासूम का शिकार
मेरी कलम भी रो पड़ी है, उसका दर्द बताने में
जो कल तक तो थी जिंदा, पर अब ना रही जमाने में
उसकी ऐसी क्या गलती थी, जो भेड़ियों का आहार बनी
वो तो पशुओं की रक्षक थी, पर पशुओं का शिकार बनी
उस दिन उसको देर हो गई थी, अपने घर को जाने में
राक्षसों ने भी खेल रच दिया, उसे अपना निशां बनाने में
गाड़ी खराब करके उसकी, खुद ही सुधारक बनकर आए
वहशी नजरों से देखते वो तो, नर के रूप निशाचर आए
उठा ले गए उसको वो तो, लोगों की नजरों से दूर
चार चार दानव थे वो तो, हवस के नशे में चूर
वो रोयी होगी, चिल्लाई होगी, मदद की गुहार लगाई होगी
अपनी रक्षा करने वो तो, बहुत ही गिड़गिड़ाई होगी
उसने वास्ता दिलाया होगा,कसम भी खिलाई होगी
मेरे साथ ऐसा मत करो भैया, तेरे घर भी आई होगी
वह बहसीपन दिखाते रहे, अपनी भूख मिटाते रहे
उसके जिस्म की बोटी बोटी, गिद्ध लोंचकर खाते रहे
इतने से भी मन नहीं भरा तो, उसको जला दिया था जिंदा
इतना करके भी उनका मन तो, बिल्कुल भी ना था शर्मिंदा
रोती होगी बिलखती होगी, जब आग जिस्म से लगती होगी
तिल तिल करके मरती वो तो,जब धीरे-धीरे सुलगती होगी
रक्षा की व्यवस्था होती तो, शायद ना ऐसी स्थिति होती
निर्भया आशिफा ट्विंकल जैसी, ना ही ये परिस्थिति होती
फांसी भी कम है उनको तो, कोई दूसरी सजा बनाओ
अंग अंग काटकर उनके, उनको चौराहों पर लटकाओ
गर्म तेल में तलो तुम उनको, या दीवारों में चुनवाओ
नरक लोक भी कांप उठे जो, यम जैसी कोई सजा सुनाओ
— नीलेश मालवीय “नीलकंठ”