ग़ज़ल
सनम का चेहरा है ये या कि माहताब कोई
है रोशनी का समन्दर कि आफताब कोई
ये खून है कि पसीना कोई बताये हमें
है आँसुओं का ये दरिया कि चश्मे आब कोई
वो एक चेहरा हमें यूँ दिखाई देता है
खिला हो जैसे बगीचे में गुलाब कोई
हमारे घर की गली में किरण के घुँघरू मिले
जरूर गुजरा यहाँ से है बेनकाब कोई
गगन में निकला हुआ चाँद ऐसा लगता है
कि जैसे बैठा हो बनिया लिये किताब कोई
लिखा था चेहरे पे क्या ठीक से न पढ़ पाया
मेरे करीब से गुजरा है बेहिजाब कोई
खिजाँ ने छीन लीं गुलशन की रौनकें वर्ना
बहार छोड़ के जाता नहीं शबाब कोई
— देवकी नन्दन ‘शान्त’