ग़ज़ल
हर इक सू से सदा ए सिसकियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।
सुना है इस वतन को बेटियां अच्छी नहीं लगतीं ।।
न जाने कितने क़ातिल घूमते हैं शह्र में तेरे ।
यहाँ कानून की खामोशियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।।
सियासत के पतन का देखिये अंजाम भी साहब ।
दरिन्दों को मिली जो कुर्सियां अच्छी नहीं लगतीं।।
वो सौदागर है बेचेगा यहाँ बुनियाद की ईंटें ।
बिकीं जो रेल की सम्पत्तियां अच्छी नहीं लगतीं ।।
बिकेगी हर इमारत अब विदेशी बोलियों पर क्या ।
तुम्हें तो जगमगाती बस्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।
ये नीलामी ये पी एस यू का नाटक बन्द कर दीजै ।
हमारे मुल्क में ये चोरियां अच्छी नहीं लगतीं ।।
बढ़ेगी फीस बच्चे बे दखल तालीम से होंगे ।
अमीरों के हितों की नीतियां अच्छी नहीं लगतीं ।।
तेरे तो हुक़्म की तामील करती मीडिया हर पल ।
वतन को ये तेरी चालाकियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।।
बुलन्दी छू रही अब देश की बेरोज़गारी ये ।
मेरी थाली की तुझको रोटियां अच्छी नहीं लगतीं ।।
पढाओ मत पहाड़ा अब तुम्हें हम पढ़ चुके इतना ।
के जुमले और तुम्हारी शेखियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।।
ज़रा नज़दीकियों का फ़लसफ़ा पढ़ लीजिये साहब ।
हमारे दरमियाँ हों दूरियाँ अच्छी नहीं लगतीं ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी
गजल अच्छी है, पर कई जगह असहमत हूँ