संस्मरण

खेल क्या-क्या सिखा जाता है

प्यारे भैया ,
जो बात बर्षों से मेरे दिल में दबी पड़ी थी ,आज मैं उसे इस खत के जरिए आपके पास पहुँचाना चाहता हूँ। मोबाइल और टेलीफोन पर बात करते समय हम आधी बातें भूल जाते हैं या बातों का सही अभिप्राय ,भावनाओं के साथ व्यक्त नहीं कर पाते। खत लिखना मेरे लिए इसलिए भी बेहतर माध्यम है क्योंकि जितना अच्छा मैं आपके सामने बोल नहीं सकता उससे कहीं अच्छा लिखकर मैं अपनी बात समझा सकता हूँ।

हम दोनों भाई एक-दूसरे को खेल के माध्यम से ही ज्यादा जान पाए। आयु अंतर होने के कारण और अलग-अलग स्कूलों में पढ़ने के कारण हमारा समय जो एक साथ बीतता था,वो था -खेल का मैदान। बिहार के किसी भी जिले में बच्चों के खेलने का सबसे पास का मैदान वो होता है जिस ज़मीन पर कोई घर नहीं बना हो और बैट-बॉल चन्दा कर के खरीदा जाने के रिवाज़ होता है। किसी के घर के पीछे की दीवार, बाँस की फट्टियों या ईंटों से विकटें तैयार हो जाया करती हैं।
जब कभी मैच होता था तो पिच को पानी से पटा कर उसकी पुताई करने से काम सीखने की भावना भी सब में भरी होती थी। यह सब जाने-अनजाने में होता चला जाता था। हम दोनों भाई भी इसी परिपाटी से जुड़े हुए थे। चूँकि आप हर खेल में अच्छे थे परन्तु क्रिकेट खेलना सबसे आसान और सस्ता था, इसलिए यह खेल आप के लिए और भी प्राप्य हो गया। हमारे मोहल्ले में खेलने वालों की कमी नहीं थी इसलिए खेलने के लिए बच्चों को तलाशन नहीं पड़ता था।बेगूसराय का सर्वोदय नगर तकरीबन बीस प्राइवेट स्कूलों से घिरा हुआ है ,इसलिए क्रिकेट का सामान खरीदने में बच्चो की तरफ से धनराशि भी आसानी से प्राप्त हो जाती थी। आप लगभग पूरे समय अपने मोहल्ले के क्रिकेट टीम के कप्तान रहे ,सो सारे सामान हमारे घर में ही रहते थे और इस तरह भी मेरा झुकाव क्रिकेट की तरह बढ़ता गया। सुबह -सुबह मैदान में क्रिकेट खेलने के लिए आपके किसी न किसी दोस्त की बुलाहट आ ही जाती थी। हालाँकि ये हमारे घर और पड़ोस के कई और घरों के सदस्यों के लिए परेशानी का सबब होता था लेकिन समय के साथ यह उनकी आदत में शामिल हो गया था।

मुझे याद है कि जब भी टीम का चयन होता तो मुझे आप हमेशा विपक्षी टीम में रखते। मुझे नहीं पता यह जान कर था या यूँ ही। मैं बॉलिंग अच्छी कर लेता था और आप बैटिंग। और आपको आउट करने का मज़ा जो मुझे आता था ,उसकी कोई सानी नहीं है। कई बार तो मैंने आपके नामुमकिन कैच लपक कर भी आपको आउट किया और कई बार मेरी बॉलिंग से आपको चोट भी पहुँची लेकिन खेल भावना की यह अद्भुत मिसाल ही थी कि आप बड़े होते हुए भी छोटे भाई से चीटिंग नहीं करते थे। मैं आपके दोस्तों के बीच सबसे छोटा था इसलिए भी मुझे बहलावे में बैटिंग और बॉलिंग पहले मिल जाती थी लेकिन मैं खेल को आपकी तरह ही पूरी जिमेदारी से खेलता था। खेल में और लोग मज़ाक भी करते थे लेकिन उनको आपकी डाँट भी खानी पड़ती थी। कई बार झगडे भी हो जाते थे लेकिन अंत में सब आपकी ही बात मानते थे।

आप फिर मोहल्ले के क्रिकेट से निकल कर बी पी हाई स्कूल की क्रिकेट मैं शामिल हो गए। आपने अपनी बैटिंग और फील्डिंग से वहाँ भी धाक जमाई। वहाँ आपको कबड्डी, बैडमिंटन, खो-खो ,एथलेटिक्स,फुटबाल,वॉलीबाल और एन सी सी में भी पारंगत होने का मौका मिला। आपने जो भी नई विधाएँ सीखी, मैं एक दर्शक के रूप में देखता रहा और आत्मसात करता रहा। हाँलाकि इस विकास में पिताजी का का भी पूरा सहयोग मिला। उन्होनें हमें खेल में अच्छा करता देखा तो हमारे लिए बास कम्पनी की महँगी बैट और बॉल खरीद कर दी।और मुझे अच्छी तरह से याद है कि हम उस बैट को लेकर साथ ही सोया करते थे। उस समय बिहार के मध्यम वर्गीय परिवार में खेल की महँगी चीज़ें खरीदेने के लिए बहुत बड़ा जिगर चाहिए होता था और हमारे पिताजी ने वो बड़ी आसानी से कर दिखाया था। आप खेल में अच्छा करते चले गए और आपको दूसरे ज़िलों के खिलाफ खेलने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा। आप जब बड़े मैदानों में खेलते तो आपने द्वारे भागे गए हर रन पर मैं तालियाँ बजाता और सोचता मेरे लिए कब ऐसी तालियाँ बजेगी। आप अमूमन मुझे अपनी बाल से आउट कर दिया करते थे ,अब मुझे समझ आता है कि शुद्ध क्रिकेट की भाषा में वो थ्रो बॉल हुआ करती थी लेकिन मेरे बच्चे होने के फ़ायदा आपको पूरा मिलता रहा ,पर कालान्तर में आप अच्छी स्पिन बॉलिंग करने लगे थे। खेल के मैदान के आस पास कितने ही फल -फूल के पेड़ हुआ करते थे। खेल के बाद दूसरों के जामुन और अमरुद के पेड़ पर चढ़ कर फल तोड़ कर खाना और फिर उनके द्वारा भगाए जाने का रोमांच किसी फ़िल्मी सीन से कम नहीं था। जब कभी मैच होता था तो च्युइंग गम, केला ,ब्रेड तो कभी समोसा और जलेबी का लोभ भी यह खेल मुझे बुलाता रहा। सुबह-सुबह जागने की आदत भी मुझे आपकी और इस खेल की वजह से ही लगी जो आज तक कायम है। जब बड़े मैदानों में मैच होता तो जो खिलाड़ी बॉल को मैदान के बाहर पहुँचाता,उसे दर्शकों की तरफ से कभी पचास तो कभी सौ रुपए का इनाम दिया जाता और उस समय यह इनाम काफी होता था। उन रुपयों से छोटी -मोटी पार्टियाँ हो जाया करती थी। आप जब लम्बे-लम्बे छक्के लगाते तो मेरा मन बॉल की तरह आसमान में उड़ने लगता था। वाकई में,आप एक बेहतरीन और सम्पूर्ण खिलाड़ी थे और हैं ,भैया। आज भी आप जिस तरह की फुर्ती और चुस्ती को बरकरार रख पाए हैं वह सब इन खेलों की देन है।आपने जितना खेल को दिया उससे कहीं ज्यादा ज़िंदगी में आपको खेल ने दिया। घनिष्ठ दोस्त, नाम ,इनाम ,पहचान और स्वास्थ्य -इस सब का धनी आपको खेल ने ही बनाया। हाल ही में बेगूसराय ज़िले के लिए जूनियर क्रिकेट टीम के चयन के लिए चयनकर्ता के रूप में आपको भी नामित किया गया।आपको पूर्व जिलाधिकारी श्री राहुल कुमार की टीम की तरफ से खेलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और आपकी इन उपलब्धियों को देखकत यह चरितार्थ हो जाता है -जहाँ चाह ,वहाँ राह। खेल आपको हर बंधन से मुक्त करता था और खेल आपकी परेशानियों के लिए रामबाण भी बन जाता था।

आप जब हाई स्कूल में जलवे बिखेर रहे थे, मैं तब वर्ग 5 में मोहल्ले के सर्वोदय शिक्षण संसथान में पढाई कर रहा था। यह मेरी ज़िंदगी का सबसे बेहतरीन समय था। पिताजी के अनुशासन की वजह से मैं अपने वर्ग में प्रथम आता रहा और स्कूल स्तर पर भी बेस्ट परफ़ॉर्मर था। हमारे हिंदी व्याकरण के अध्यापक श्री पवन कुमार क्रिकेट के प्रेमी थे। जब कभी क्रिकेट का मैच होता तो उनकी घंटियाँ खाली ही जाया करती थी। लेकिन वह हमारे लिए सौभाग्य ही था। क्योंकि पढ़ाई में पिटाई का क्या स्थान है , उन्होनें साक्षात रूप में हमें दर्शन कराया था। बाँस की मोटी-मोटी बेंत जिससे कभी भैंसों को हाँका जाता था, उससे हमें भी दिन में चाँद-तारे दिखाए जाते थे। पवन सर का यह रूप शाम आते -आते परिवर्तित हो जाता करता था। क्रिकेट खेलने के लिए जिन बच्चों को सुबह पीटा करते थे ,उसी को शाम में गोद में उठा कर खेलने के लिए भी लाते थे। मैं उनके प्रिय छात्रों में एक था। आज तक मैंने उनसे पिटाई नहीं खाई ,हालाँकि खाता भी तो आज ग़म नहीं होता। आज मैं हिंदी में अगर इतना शुद्ध लिख पाता हूँ तो उनकी ही मेहरबानी है। शाम को स्कूल के छोटे से जगह में क्रिकेट का जो रोमांच शुरू होता वह आज तक सब विद्याथियों के जहन में जस का तस बसा हुआ है। उस खेल से स्कूल के कितने खपड़े टूट गए जिससे हमारे प्रिंसिपल श्री अरविन्द प्रसाद सिंह किलसते रहते थे, वो भी आजिज हो चुके थे लेकिन खेल एक दिन भी नहीं रूकता था। आज कोई सचिवालय में अधिकारी है तो कोई कॉलेज में प्रोफेसर लेकिन स्कूल के उन दिनों का खेल आज भी उन्हें किसी स्वप्नलोक में ले जाता है। खेल स्पर्धा की पराकाष्ठा तक मैं वहाँ खेलता था।जूनियर से आउट होने का डर , सीनियर्स को धोने का परम सुख और अपने गुरुओं को अपनी बॉलिंग से चोट पहुँचाकर एक अलग तरह की संतुष्टि का भाव -इन खेलों के अलावे कोई भी प्रदान नहीं कर सकता है। एक और खेल जो बारिश के महीने में क्रिकेट न खेले जाने पर मैं सीख गया और उसमें मैं बेस्ट बन गया वो था – वो था कैरम। हमारे प्राध्यापक श्री सुरेश प्रसाद सिंह यह खेल बहुत अच्छा खेलते थे लेकिन एक महीने के अंदर मैं उनको टक्कर देने लगा और इस खेल-खेल में मैं उनका प्रिय भी होता चला गया। इन खेलों की वजह से हम दिन भर व्यस्त रहते। कहीं भी किसी तरह की शरारत का वक़्त ही हमें नहीं मिलता और हमारे मात-पिता भी बिलकुल निश्चिंत थे कि इस समय उनके बच्चे खेल ही रहे होंगे ना कि किसी गलत आदत का शिकार हो रहे होंगे।

सन 1997 में मेरा चयन सैनिक स्कूल तिलैया,कोडरमा में हो गया जो किसी सपने के साकार होने से कम नहीं था। खेल ने वहाँ भी मेरा मान बढ़ाया। मुझे वर्ग छह के लिए क्रिकेट का बेस्ट प्लेयर चुना गया। वहाँ मुझे हर तरह के खेल खेलने का मौका मिला। मुझे वॉलीबाल ने काफी आकर्षित किया और सन 2003 में मुझे स्कूल वॉलीबाल टीम में चुन लिया गया और इंटर स्कूल टूर्नामेंट के लिए सैनिक स्कूल भुवनेश्वर में खेलने का मौक़ा मिला। सन 2008 में मेरा प्रवेश जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में हुआ जहाँ मेरा चयन यूनिवर्सिटी वॉलीबॉल टीम में हुआ और यूनिवर्सिटी मैच के लिए लिए मुझे चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी, मेरठ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहाँ मुझे टेबल-टेनिस सीखने का मौका मिला और इस खेल का जूनून सवार हो गया। इस खेल के गुरु मेरे सीनियर आशुतोष सिंह थे जो आजकल लखनऊ विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। बिलकुल एक बड़े भाई की तरह उन्होनें मुझे यह खेल सिखाया और इसका परिणाम यह था कि मुझे ताप्ती हॉस्टल के बेस्ट प्लेयर का प्राइज भी मिला। मेरे रूम मेट, श्री संतोष कुमार जो आजकल रक्षा मंत्रालय में सेक्शन अधिकारी हैं ,शतरंज के अच्छे खिलाड़ी हैं। उनके साथ शतरंज का लम्बा दौर चलता और मैं कभी-कभी जीत जाता तो ख़ुशी की सीमा नहीं रहती। इन खेलों के माध्यम से कितने नए दोस्त बने, कितनी कहानियों का पता चला, शरीर को निखारने का वक़्त खुद निकलता चला गया और स्वयं में आत्मविश्वास का संचार होता चला गया। खेल -खेल में पता ही नहीं चला कि हम कब छात्र से एक परिपक्व इंसान बन गए और ज़िंदगी में खेल कितना अहम् रोल निभाता है ,आज यह मैं बखूबी मह्सूस करता हूँ।

ज़िंदगी में इतना बड़ा तोहफा देने की लिए भैया, आपका बहुत शुक्रिया।

आपका अनुज,
— सलिल सरोज

*सलिल सरोज

जन्म: 3 मार्च,1987,बेगूसराय जिले के नौलागढ़ गाँव में(बिहार)। शिक्षा: आरंभिक शिक्षा सैनिक स्कूल, तिलैया, कोडरमा,झारखंड से। जी.डी. कॉलेज,बेगूसराय, बिहार (इग्नू)से अंग्रेजी में बी.ए(2007),जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.ए(2011), जीजस एन्ड मेरी कॉलेज,चाणक्यपुरी(इग्नू)से समाजशास्त्र में एम.ए(2015)। प्रयास: Remember Complete Dictionary का सह-अनुवादन,Splendid World Infermatica Study का सह-सम्पादन, स्थानीय पत्रिका"कोशिश" का संपादन एवं प्रकाशन, "मित्र-मधुर"पत्रिका में कविताओं का चुनाव। सम्प्रति: सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिश। आजीविका - कार्यकारी अधिकारी, लोकसभा सचिवालय, संसद भवन, नई दिल्ली पता- B 302 तीसरी मंजिल सिग्नेचर व्यू अपार्टमेंट मुखर्जी नगर नई दिल्ली-110009 ईमेल : [email protected]