गर इस जहान में गर कहीं भी खुदा होगा।
यकीनन वो गूंगा, अंधा और बहरा होगा।
उस के हौसले इस बूते पे ही तो बुलंद हैं,
के यहाँ का हरेक पहरेदार सो रहा होगा।
रो लो दो घडी, सब मिल के जला लो शमाँ भी,
इस तरतीब से कहां इंसाफ भला होगा।
इस खामख्याली में ही वो डूब गया यारब,
लाख तूफां आये, हमराह मेरे, नाखुदा होगा।
जिस कोख से तू जन्मा, उसे शर्मसार किया,
नराधम क्या तेरा कलेजा न दहला होगा।
आज गुस्से में है, कल हम सब भूल जायेंगे,
घुट घुट के जीने से, अब कहाँ फैसला होगा।
“सागर” कितने बौने हो गए, और नामर्द भी,
चीखों की आवाजों से,तेरा दिल न दहला होगा,
बाहें क्यों न बन गई तेरी इन्साफ की शमशीरें,
क्यों पनीली आँख से तेरे लहू न टपका होगा।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”