ढह गया यादों का एक और स्तंभ ।
मुंबई के प्रसिद्ध चर्चगेट स्टेशन के निकट न्यू सीजीओ बिल्डिंग में वस्त्र आयुक्त का कार्यालय है। वहीं छठी मंजिल पर एक कमरा हिंदी प्रशिक्षण के लिए हमारे कार्यालय को मिला हुआ था। लंबे समय तक कामिनी ने वहां पर कक्षाएं लीं।
उसी दौरान कुछ समय तक पास की ही बिल्डिंग, ओल्ड सीजीओ बिल्डिंग में मैंने भी पढ़ाया। अन दिनों होता यह था कि दोपहर को लंच के दौरान मैं खाना खाने के लिए कामिनी के न्यू सीजीओ बिल्डिंग वाले प्रशिक्षण कक्ष में आ जाता था और वहाँ हम साथ में ही खाना खा लेते थे। लंच के समय वह रोज मेरा इंतजार करती थी।
यहाँ तक कि उस समय हमारी एक ईर्ष्यालु अधिकारी को जब यह पता लगा तो उसे थोड़ा कष्ट भी हुआ था। उसने कहा था, ‘देखिए कमाल है ना, लंच में भी दोनों पति-पत्नी साथ में खाना खाते हैं।’ तब मैंने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘अरे आपको नहीं पता, हम तो डिनर भी रोज साथ ही करते हैं।’
बाद में भी लंबे समय तक कामिनी उस केंद्र पर पढ़ाती रही थी। उस बिल्डिंग में ज्यादातर अधिकारी-कर्मचारी उसे जानते थे और हर कोई उसके काम की और व्यवहार की सराहना करता था। हालांकि साथ खाना खाने का सिलसिला ज्यादा समय तक नहीं चला क्योंकि बाद में मैं दूसरी कार्यालय में स्थानांतरित हो गया था। हालांकि वह लंबे समय तके वहां पर कक्षाएं लेती रही। कभी -कभार किसी सरकारी काम से उस तरफ जाना होता तो मैं वहाँ चला जाता था।
आज उस घटना को लंबा समय बीत चुका है। आज कामिनी हमसे बहुत दूर कहीं अनंत में समा गई है। आज मुझे यह दायित्व सौंपा गया कि चर्चगेट स्टेशन के निकट न्यू सीजीओ बिल्डिंग के उस कमरे का फर्नीचर निकालकर नीलाम कर दूं और कुछ सामान जो ठीक हालत में है उसे नवी मुंबई दफ्तर भेज दूं। और इस प्रकार उस परिसर और उस कमरे को भी सदा के लिए विदा कर दिया जाए।
टैक्सटाइल कमिश्नर ऑफिस ने अब वह जगह छोड़ दी है। अंदर उनका और हमारा पुराना फर्नीचर पड़ा हुआ था, जिसकी नीलामी करनी थी। वह परिसर एस्टेट मैनेजर कार्यालय द्वारा सील कर दिया गया था, जिसे पुलिस की उपस्थिति में खुलवाया गया।
वहां पहुंचने पर देखा कि पहले की तरह वैसे ही ब्लैक बोर्ड, उसकी मेज और कुर्सी, बगल में एक आराम कुर्सी भी है। सामने प्रशिक्षर्थियों की मेज कुर्सियां थी। सब पर धूल जमी हुई थी। वहां पहुंचते ही वे तमाम यादें मेरी आंखों में तैरने लगीं। यादों का चलचित्र एक बार अचानक सामने था।
अचानक स्मृति पटल से धूल छंटने लगी। मुझे लगा कि वह सामने बैठी है और कह रही है, ‘ कब से इंतजार कर रही हूँ, आज बहुत देर कर दी आपने आने में।’ तंद्रा टूटी तो फिर वही धूल भरा कमरा सामने था। मैं हतप्रभ था। स्मृतियों के उभरते ही गला रूंध गया और आँखों में पानी उतर आया। साथ में कार्यालय के और भी कई लोग थे। उनसे नजर बचाकर मैं साथ वाले खाली कमरे की तरफ मुड़ गया।
सब कुछ समाप्त हो चुका था। लेकिन वे स्मृतियाँ अभी भी दिलो-दिमाग में बादलों की तरह बार-बार उमड़ – घुमड़ रही थीं। मानसून को बीते एक महीना हो चुका है। मुंबई की अक्तूबर हीट अपना असर दिखा रही थी। तभी नीचे से एक कर्मचारी का फोन आया, ‘सर बाहर तो बहुत तेज बारिश हो रही है।’
जब वहाँ आया था तो बादलों का नामों निशान भी न था। अचानक हुई इस बारिश से मुझे लगा कि जिन आंसुओ को मैं भीतर ही भीतर पीए जा रहा था शायद कुदरत उन्हें अपने तरीके से बरसा कर मेरे दर्द को बांट रही थी।
— डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’