कहानी

गृहिणी – गृहस्थी

आत्माराम का नागपुर शहर के जरीपट्‌का में मकान और सीताबर्डी इलाके में दुकान है। इकलौती संतान आलोक की शादी धूम – धाम से की। शादी की सुव्यवस्था से सभी रिश्तेदार, परीचित और पड़ौसी संतुष्ट हुए।
आत्माराम की पत्नी कांतादेवी ने पिता – पुत्र को बंद कमरे में खुसर – पुसर करते सुना तो उनका माथा ठनका। चिंतातुर होकर पिता – पुत्र से पूछा, ‘ सब कुशल – मंगल तो है ना? ‘ पिता – पुत्र सच्चाई को छुपाते हुए सवाल को हंसी में टाल गए। कांतादेवी की अनुभवी आंखों ने ताड़ लिया कि ज़रूर कोई गंभीर समस्या है जिसे छुपाने की असफल कोशिश की जा रही है।
दूसरे दिन शाम को कांतादेवी अकेली दुकान पर जा धमकी। दुकान का सारा दृश्य देखकर सारी तस्वीर आईने की तरह साफ हो गई। दुकान आधे से ज़्यादा ख़ाली नज़र आ रहा था। आर्थिक तंगी वाली यही अड़चन पिता – पुत्र उससे छुपा रहे थे। कांतादेवी बिना कुछ कहे – सुने, दुखी होकर घर लौट आई।
रात के भोजन के उपरांत कांतादेवी ने पिता – पुत्र से संजीदगी से कहा, ‘ शादी में जो कुछ भी अनाप – शनाप खर्च हुआ सो हुआ। हमारी रोज़ी – रोटी का एकमात्र ज़रिया यह दुकान ही है। यह रहे मेरे सारे ज़ेवरात। इन्हें बेचकर दुकान में माल भरना है। ध्यान रहे, सारा सोना बेचना है, गिरवी हर्गिज़ नहीं रखना है। वरना ब्याज चुकाते – चुकाते हमारी कमर टूट जाएगी। ‘ पिता – पुत्र भौचंक्के होकर कांतादेवी को देखने लगे। दुसरा कोई विकल्प नहीं बचा था, इसलिए अनमने मन से दोनों ने सोना बेचने की हामी भर दी। उनकी नई – नवेली दुल्हन दरवाज़े के ओट में खड़ी सारी बातें सुन रही थी।

सुबह पिता – पुत्र के साथ कांतादेवी अनमने मन से घर से बाहर जानेवाले थे कि इतने में अमिता ने सास से कहा, ‘ अब मैं भी परिवार के सुख – दुख की समान भागीदार हूं। इसलिए ये मेरे सारे जेवर भी ले जाएं। इसे बेचें या गिरवी रखें, मर्ज़ी आपकी। ‘ अमिता की दरियादिली ने सबको चौंका दिया।
कांतादेवी की आंखें भर आयी। भावुक होकर बहु से कहा, ‘ ये सारे जेवर शादी में तुम्हारे मायकेवालों ने बनाकर दिए हैं, जिन पर सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारा अधिकार है। परिवार की भलाई के लिए तुमने इतना बड़ा निर्णय लिया जोकि हमारे लिए गर्व की बात है। मेरी सदा से इच्छा थी कि एक बेटी होती जिससे मैं अपने दिल की बातें, सुख – दुख शेयर करती। ईश्वर ने सुशील
बहु के रूप में जो बेटी दी है उससे हम धन्य हो गए। तुम हमारे लिए गृहलक्ष्मी और सौभाग्यलक्ष्मी दोनों हो। ‘ ममतामयी सास के मुंह से ख़ुद की स्तुति सुनकर अमिता की आंखें ख़ुशी से नम हो गई। वो सोचने लगी, ‘ अगर हर बहु को ऐसी सुन्दर स्वभाववाली सास मिले तो हर घर स्वर्ग बन जाएगा। ‘
लेखक – अशोक वाधवाणी

अशोक वाधवाणी

पेशे से कारोबारी। शौकिया लेखन। लेखन की शुरूआत दैनिक ' नवभारत ‘ , मुंबई ( २००७ ) से। एक आलेख और कई लघुकथाएं प्रकाशित। दैनिक ‘ नवभारत टाइम्स ‘, मुंबई में दो व्यंग्य प्रकाशित। त्रैमासिक पत्रिका ‘ कथाबिंब ‘, मुंबई में दो लघुकथाएं प्रकाशित। दैनिक ‘ आज का आनंद ‘ , पुणे ( महाराष्ट्र ) और ‘ गर्दभराग ‘ ( उज्जैन, म. प्र. ) में कई व्यंग, तुकबंदी, पैरोड़ी प्रकाशित। दैनिक ‘ नवज्योति ‘ ( जयपुर, राजस्थान ) में दो लघुकथाएं प्रकाशित। दैनिक ‘ भास्कर ‘ के ‘ अहा! ज़िंदगी ‘ परिशिष्ट में संस्मरण और ‘ मधुरिमा ‘ में एक लघुकथा प्रकाशित। मासिक ‘ शुभ तारिका ‘, अम्बाला छावनी ( हरियाणा ) में व्यंग कहानी प्रकाशित। कोल्हापुर, महाराष्ट्र से प्रकाशित ‘ लोकमत समाचार ‘ में २००९ से २०१४ तक विभिन्न विधाओं में नियमित लेखन। मासिक ‘ सत्य की मशाल ‘, ( भोपाल, म. प्र. ) में चार लघुकथाएं प्रकाशित। जोधपुर, जयपुर, रायपुर, जबलपुर, नागपुर, दिल्ली शहरों से सिंधी समुदाय द्वारा प्रकाशित हिंदी पत्र – पत्रिकाओं में सतत लेखन। पता- ओम इमिटेशन ज्युलरी, सुरभि बार के सामने, निकट सिटी बस स्टैंड, पो : गांधी नगर – ४१६११९, जि : कोल्हापुर, महाराष्ट्र, मो : ९४२१२१६२८८, ईमेल [email protected]