कविता

मैं स्त्री हूं

मैं स्त्री हूं ,मैं कठपुतली
मां ,बहन बेटी ,पत्नी
कितने किरदार निभाती हूं
जीवन के रंग मंचके  धागों पर
 नाचती  कठपुतली सी  परिवार के रंगों में
कभी अच्छा तो कभी मुसीबत में
नाचती ढाल बन कर
  पत्नी बन सेवा करती
पति ही मान परमेश्वर
मन समर्पित तन समर्पित
रहती अटूट विश्वास बन
जो मन से उतरे पति के
 कर दे उस का परित्याग
हां मैं स्त्री ,मैं कठपुतली
देना पड़ता प्रमाण अपना
मां बन कर,वंश को बढ़ाना
बेटा हो जिम्मेदारी निभानी है
मैं स्त्री मैं ही कठपुतली
पति बिन नारी जीवन
कहलाता सर्वथा अर्थहीन
ना पहनें मन से ना संवारे तन
मै स्त्री ,मै ही कठपुतली
जब रूठ जाती मां  लक्ष्मी
तब पड़ते  निवाले जुटाने
सब का पालन करना
शुभ ,अशुभ का भार उसी के हाथ
मै स्त्री ,मैं ही कठपुतली
जुड़ी हूं हर किरदार से
कभी मुझे परखा जाता
कभी  धागे में बांधी जाती
कभी खींचा कभी छोड़ा
कभी स्नेह  कभी  अपमानित
इस पुरुष प्रधान समाज में
प्रभु रचना नारी की कर डाली
उसकी वेदना को जान लो
तुम  नचाते हो सकल जगत कठपुतली सा ………
इस भेद भाव को हर दो
जो बुन कर भेज दिये तुमने
धागों का यही खेल खेलती
मैं स्त्री, मैं कठपुतली ………..।
— बबिता कंसल

बबीता कंसल

पति -पंकज कंसल निवास स्थान- दिल्ली जन्म स्थान -मुजफ्फर नगर शिक्षा -एम ए-इकनोमिकस एम ए-इतिहास ।(मु०नगर ) प्राथमिक-शिक्षा जानसठ (मु०नगर) प्रकाशित रचनाए -भोपाल लोकजंग मे ,वर्तमान अंकुर मे ,हिन्दी मैट्रो मे ,पत्रिका स्पंन्दन मे और ईपुस्तको मे प्रकाशित ।