बालकथा – आघात
“माँ मैं कल से स्कूल नहीं जाऊँगा।” स्कूल से आते ही मानू बस्ता रखते हुए कहता है।
“क्यों?” माँ ने प्रश्न किया
बिना कुछ कहे चुपचाप अपने कमरे में चला जाता है। माँ भी पीछे-पीछे जाती है पर! वह दरवाज़ा माँ को अंदर लिए बग़ैर ही बंद कर देता है। माँ बहुत देर तक दरवाज़ा खटखटाती रहती है पर! वह नहीं खोलता। अब तो माँ का ह्दय बहुत ज़ोर-ज़ोर से हिचकोले खाने लगता है। जब वह अपनी क़सम देती है, तब कहीं जाकर दरवाज़ा खुलता है। मानू माँ से पीठ करके लेट जाता है।
माँ जल्दी से अंदर प्रवेश करती है और बेटे का सर अपनी गोदी में रखती है और धीरे-धीरे बालों मे हाथ फेरते हुए वह उससे इधर-उधर की बातें करने लगती है। धीरे-धीरे मानू अब पूरा माँ की गोदी में सिमटता जा रहा था, उसको देखकर लग रहा था जैसे कोई गहरी बात थी जो वह माँ से पूछना चाहता था।
अचानक से मानू बैठ जाता है और प्रश्न करता है? “माँ! पापा कहाँ हैं? जब से मैं पैदा हुआ हूँ उनको एक बार भी नहीं देखा।”
माँ के चेहरे पर चिंताओं की लकीरें साफ़ देखी जा सकती थीं।
“माँ आप मौन क्यों हैं बताइये ना!” फिर वही सवाल मानू की ज़ुबा पर था।
“क्या बताऊँ?” माँ की आँखें स्थिर हो जाती हैं
“सब मुझे चिढ़ाते हैं कि तू बिन ब्याही माँ की औलाद है।” मानू
“हाँ सही तो कह रहे हैं सब, यह एक तेरी माँ की बहुत बड़ी भूल थी और यह समझ कि तेरा बाप नहीं है इस दुनिया में। सिर्फ़ तेरी माँ है।” कहकर माँ बहुत तेज़ चिल्लाती है…..
“फिर यह बात आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताई?” मानू
“मैंने सोचा था कि बड़ा होने पर सच्चाई से अवगत कराऊँगी। मुझे पता ही नहीं चला कि तुम कब बड़े हो गए?” माँ बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहती है।
यह सुनकर मानू अपनी जगह से तुरंत खड़ा होता है और माँ का सिंदूर अपने हाथों से पोंछ देता है। माँ का हाथ अपने हाथ में लेकर माँ के कलेजे से लग जाता है। दोनों उस दिन ख़ूब रोते हैं जैसे- वाक़ई घर में किसी की मृत्यु हो गई हो।
— नूतन गर्ग (दिल्ली)