कृष-काय पंडित आर्यमुनि जी का एक युवक से मल्लयुद्ध एवं उनका नाभा शास्त्रार्थ
पण्डित आर्यमुनि जी वेदों के उच्च कोटि के विद्वान थे। आपने वेद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण तथा महाभारत आदि ग्रन्थों पर भाष्य व टीकायें लिखी हैं। वैदिक धर्म के विरोधियों से आपने शास्त्रार्थ किये और उन्हें पराजित किया। शरीर से पंडित जी दुबले-पतले दुर्बल से व्यक्ति थे। पडित जी मल्लयुद्ध के ज्ञाता भी थे। इससे सम्बन्धित एक घटना यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। जिस समय पण्डित जी डी0ए0वी0 कालेज लाहौर में प्रोफैसर थे, उस समय एक दिन बाहर भ्रमण के लिए जा रहे थे। एक युवक ने कहा, पण्डित जी आप यह तो मानते होंगे कि मल्लयुद्ध (कुश्ती) में केवल शारीरिक बल से काम चल जाता है। इसी प्रकार शास्त्रार्थ में केवल बुद्धि-बल ही चाहिए। पण्डित जी ने उत्तर दिया मल्लयुद्ध में शरीरिक बल से बुद्धिबल की अधिक आवश्यकता है। इस पर उस युवक ने पण्डित जी को चैलेंज करते हुए कहा, ‘‘आप मेरे साथ कुश्ती लड़ लें, आपमें बुद्धि बल तो है ही।”
पण्डित जी उस युवक से मल्ल युद्ध अर्थात् कुश्ती लड़ने के लिये तैयार हो गये। उस युवक और पण्डित जी को रोकने का यत्न किया गया कि आप कुश्ती न लड़े़, परन्तु सब निष्फल रहा। अन्त में ‘बज्म से रज्म हो गया’ अर्थात् सभा से समर हो गया कहावत चरितार्थ हुई। उस कुश्ती के दर्शकों के आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि तुरन्त ही पण्डित जी उस युवक की छाती पर बैठ गये। उस युवक ने पण्डित जी की टांगें पकड़कर उनको उठाकर नीचे गिराना चाहा। पण्डितजी ने ऐसा पेच किया कि वह युवक चारों खाने चित्त हो गया और पण्डित जी फिर उसकी छाती पर बैठ गये।
पण्डित जी से मल्ल-युद्ध की बात करें तो आप घण्टों इस विषय में बातें करते थे। वे दावों के नाम, उनके रूप बतलाते हुए कहा करते थे, अमुक मल्ल ने अमुक कुश्ती में यह दाव किया था, अमुक को यह पेच सिद्ध था, अमुक इस दाव में सिद्धहस्त था। अमुक नीचे से अच्छा लड़ता था, अमुक बैठकर मल्लयुद्ध करता था इत्यादि। इस विषय के भी आप उतने ही ज्ञाता प्रतीत होते थे जितने वेदान्त-दर्शन के पण्डित थे।
जिस प्रकार पण्डित लेखराम जी का स्वभाव भा कि वे चाहे किसी विषय पर व्याख्यान दें, इस्लाम के विषय में कुछ अवश्य कहते थे, उसी प्रकार पण्डित आर्यमुनि जी किसी भी विषय पर भाषण दें, वे नवीन वेदान्त पर कुछ-न-कुछ अवश्य कहते थे।
पण्डित जी ऋषि दयानन्द के अनन्य भक्त थे। बातचीत में वे कहा करते थे कि जिस प्रकार पद्मपादाचार्य, सुरेश्वराचार्य, विद्यारण्य स्वामी, वाचस्पति मित्रादि ने शंकराचार्य के मत की पुष्टि की थी, इसी प्रकार आर्यसमाज को आचार्य ऋषि दयानन्द जी के सिद्धान्तों का मण्डन करना चाहिये। प्रायः वे स्वरचित छन्द की यह पंक्ति पढ़ा करते थे- ‘सो गुरु हैं हमरे उर में जिनका शुभ नाम दयानन्द दण्डी।’
पण्डित जी आर्यसमाज के प्रचारक, उपदेशक और शास्त्रार्थ महारथी भी थे। आपने अनेक शास्त्रार्थ किये। उनमें से यहां नाभा के एक शास्त्रार्थ का उल्लेख किया जा रहा है। नाभापति महाराजा हीरासिंह जी शास्त्रार्थ के अध्यक्ष थे।
शास्त्रार्थ विधवा विवाह पर था। उसमें पण्डित जी ने ‘जिस रखवारो औसे होवे’ के पाठ से विधवा-विवाह सिद्ध किया। विपक्षी पण्डित ने आपत्ति की। सत्यार्थप्रकाश में महर्षि दयानन्द ने गुरु नानक देव जी पर आक्षेप किया है, अतः इनका यह प्रमाण देना ठीक नहीं है। इस पर महाराजा नाभा ने व्यवस्था देते हुए कहा था, महाराजा पटियाला श्री राजेन्द्र सिंह जी ने मेम से विवाह किया। मैंने उन्हें कहा, ‘‘आपने ठीक नहीं किया, मुझे उन्होंने कुछ नहीं कहा।” यदि आप कहें तो आपको वह दण्ड देंगे। इसी प्रकार दयानन्द भी बाबा था, नानक भी बाबा था। बाबे ने बाबे को जो चाहा लिख दिया। यदि पण्डित आर्यमुनि जी कुछ कहें तो मैं पूछ लूँगा, अतः प्रमाण ठीक है। इस शास्त्रार्थ में महाराजा जी की व्यवस्था आर्यसमाज के पक्ष में थी। दोनों पक्षों को विदा करते समय महाराजा जी ने पण्डित जी को कहा था- ‘‘सुणया जांदा ए कि बी0ए0, एम0ए0 बड़े झगड़ालू हुंदे ने, पर किसे नालों घट नहीं।” अर्थात् यह सुना जाता है कि अंग्रेजी पठित अपना पक्ष सिद्ध करने में बड़े पटु होते हैं, परन्तु आप भी उन्हीं के समान हैं। किसी से कम नहीं।
आर्यसमाज में पण्डित जी महामहोपाध्याय उपाधि प्राप्त किए हुए हुवे हैं। सरकार ने उनको उपाधि देकर उनकी विद्वता को स्वीकार किया। पण्डित जी हिन्दी व पंजाबी दोनों भाषाओं के कवि भी थे। उन्होंने गुरुमुखी अक्षरों में दो या तीन पुस्तकें लिखी थीं और पंजाबी के छन्द प्रायः सुनाया करते थे। उन्होंने अपने काल में छपे पंजाब के सब किस्से पढ़े हुए थे।
पंडित आर्यमुनि जी का संक्षिप्त परिचय भी प्रस्तुत है। पं. आर्यमुनि का जन्म पूर्व पटियाला राज्य के रूमाणा ग्राम में सन् 1862 में हुआ था। इनका जन्म का नाम मणिराम था। आर्यसमाज में प्रविष्ट होने के पश्चात् इन्होंने अपना नाम आर्यमुनि रख लिया। काशी में रहकर पं. आर्यमुनि ने संस्कृत भाषा तथा वैदिक वांग्मय का विशद् अध्ययन किया। पुनः डी.ए.वी. कालेज, लाहौर में संस्कृत के वर्षों तक प्रेोफेसर रहे। अन्य मतावलम्बियों के साथ होने वाले शास्त्रार्थों में भी पं. आर्यमुनि भाग लेते थे। आर्यसमाज बच्छोवाली (गुरुकुल पार्टी) लाहौर के वार्षिकोत्सव के पश्चात् तीन दिन तक निरन्तर विभिन्न मतावलम्बियों से धार्मिक चर्चा होती थी। इस धर्म सम्वाद में पं. आर्यमुनि ही आर्यसमाज का प्रतिनिधित्व करते थे। लाहौर में ही महात्मा हंसराज की अध्यक्षता में ‘वेद में इतिहास’ विषय को लेकर आर्यसमाजी विद्वानों का प्रसिद्ध शास्त्रार्थ पं. विश्वबन्धु शास्त्री से हुआ था। इसमें भी प्रमुख प्रवक्ता के रूप में अन्य विद्वानों के साथ पं. आर्यमुनि विद्यमान थे। पं. आर्यमुनि को इनके अगाध पांडित्य तथा अपार वैदुष्य के कारण तत्कालीन भारत सरकार ने ‘महामहोपाध्याय’ की उपाधि प्रदान की थी। आर्यसमाज के वे एक मात्र विद्वान् थे, जो उस समय इस उपाधि के योग्य समझे गए थे। पं. आर्यमुनि ने प्रायः सभी शास्त्र ग्रन्थों पर टीका, भाष्य एवं व्याख्यायें लिखी हैं। दुःख से लिखना पड़ रहा है कि उनके लिखे व सम्पादित प्रायः सभी ग्रन्थ पुनप्र्रकाशन के अभाव में अनुपलब्ध हैं।
हमने इस लेख की सामग्री आर्यजगत के शीर्ष सन्यासी स्वामी स्वतन्त्रानन्द सरस्वती जी की पुस्तक इतिहास-दर्पण से ली हैं। हम पुस्तक के लेखक, सम्पादक तथा प्रकाशक का धन्यवाद करते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य