सन् 1909 में पटियाला राजद्रोह केस में अंग्रेज सरकार का आर्यसमाज व इसके अनुयायियों पर अत्याचार
पराधीनता के युग में अंग्रेज सरकार ने आर्यसमाज के प्रति कू्ररता का परिचय दिया था। इसके सदस्यों को अकारण परेशान किया जाता था। आर्यसमाजियों को सरकारी नौकरी नहीं मिलती थी और जो नौकरी में होते थे उन्हें नौकरी से किसी न किसी आरोप में निकाल दिया जाता था। वह आर्यसमाज के सत्संगों में भी नहीं जा सकते थे। उन पर सरकारी अधिकारी नजर रखते थे। आर्यसमाज के लोगों पर अंग्रेजों के अन्याय व अत्याचारों की लम्बी कथा है। यह आर्यसमाज के इतिहास ग्रन्थों में देखी जा सकती है। आज हम पटियाला आर्यसमाज व इसके अनुयायियों को जो मानसिक व शारीरिक रूप से परेशान किया गया, उसका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। पटियाला आर्यसमाज पर राजद्रोह के आरोप की घटना आर्यसमाज के प्रति सरकार के रुख को प्रकट करने वाली सबसे अधिक ओछी और महत्वपूर्ण घटना है। माह सितम्बर सन् 1909 में पटियाला के आर्यसमाज के सभी सदस्यों के घरों पर पुलिस ने एकाएक छापा मार कर उनके सब कागज पत्र और पुस्तकें जब्त कर लीं थी। उन सबको गिरफ्तार करके पुलिस का एक कैम्प बनाकर उसमें डाल दिया गया था। आर्यसमाज मन्दिर पर भी ताला लगाकर वहां पहरा बैठा दिया गया था।
आर्यसमाज व इसके अनुयायियों पर धारा 124-अ, 153-अ और 121-अ के अनुसार मुकदमा चलाने के लिये स्पेशल ट्रिब्यूनल की नियुक्ति की गई थी। पटियाला रियासत के पी.डब्लू.डीं के इंजीनियर, एकाउंटेंट और स्कूलों के हैड मास्टर सहित अध्यापक एवं साधरण से साधरण आर्यसमाजियों को भी उसमें फंसाया गया था। रियासत की पुलिस का इन्स्पेक्टर जनरल मि. बारबर्टन मुकदमें का इनचार्ज था। उसकी ओर से रियासत के सुपरिटेन्डिंग इंजीनियर राय बहादुर सर गंगाराम सी.आई.ई., लाहौर की विधवा-विवाह सहायक सभा एवं सर गंगाराम ट्रस्ट के संस्थापक सरीखे उच्च पदाधिकारियों की गिरफ्तारी के लिए भी आग्रह किया गया था।
लाहौर के सुप्रसिद्ध बैरिस्टर मि. ग्रे पटियाला की ओर से मुकदमें की पैरवी के लिए नियुक्त किये गये थे। मि. नार्टन के दक्षिणेश्वर बम केस के समान ही मि. ग्रे ने मुकदमें के लिए तैयारी की थी। आर्यसमाज को राजद्रोही संस्था साबित करने के लिए उसने चोटी से एड़ी तक का पसीना एक कर दिया था। जमानत का प्रश्न आने पर अवस्था का इतना संकटापन्न चित्र खींचा गया और एक-एक आर्य के सम्बन्ध में कुछ ऐसी बातें कही गईं, जैसे कि सरकार का तख्ता एकदम ही उलटने को था। महाराजा को सब कानूनों का कानून बता कर न किसी कानून की परवाह की जाती थी और न ट्रिब्यूनल का ही कोई आदेश माना जाता था। पूरी मनमानी से काम लिया गया और आर्यसमाज को राजद्रोही संस्था सिद्ध करने के लिये कोई भी कसर उठा न रखी गई। महीनों मुकदमें का नाटक होने के बाद आर्यसमाजियों को रियासत छोड़ने का हुक्म देकर मुकदमा उठा लिया गया।
पटियाला राज्य में मुकदमा चलाने का नाटक तो रचा गया था परन्तु दूसरे स्थानों पर बिना मुकदमा चलाये ही आर्यसमाज के रजिस्टरों में से आर्यसमाजियों के नाम ले कर पुलिस की दस नम्बर की लिस्ट तैयार की जाती थी। उसके उपदेशकों और नेताओं के आगे-पीछे पुलिस के खुफिया सिपाही चक्कर काटा करते थे। आर्यसमाज के अधिवेशनों पर निगरानी रखी जाती थी। उसके हर एक काम की गहरी छानबीन की जाती थी। महात्मा मुंशीराम जी के शब्दों में आर्यसमाजी आउट-ला थे जिन पर कोई भी बिना किसी संकोच और भय के निशाना साध सकता था। राजदण्ड की सब व्यवस्था आर्यसमाजियों के लिये थी। उन पर निशाना साधने वालों को पूरा अभयदान मिला हुआ था। यह समय वस्तुतः आर्यसमाज के लिए संकट का समय था, जबकि आर्यसमाजियों में चारों ओर त्रास फैला हुआ था। ऐसा प्रतीत होता था कि महारानी विक्टोरिया की धर्म निरपेक्षता की नीति की घोषणा आर्यसमाज के लिये नहीं की गई थी।
आर्यसमाज व उसके अनुयायियों ने अपने वैदिक धर्म की रक्षा के लिए किस प्रकार के कष्ट सहे, पटियाला का राजद्रोह केस उसका एक उदाहरण है। इसी तरह से आर्यसमाज के लोगों को देश भर में अंग्रेज सरकार के अधिकारी परेशान किया करते थे। देश को आजाद कराने में एक ओर जहां क्रान्तिकारियों का बहुमूल्य योगदान था। आर्यसमाज के अनुयायी क्रान्तिकारियों व नरम दल के आन्दोलनों में बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे। विश्व की बदली राजनीतिक परिस्थितियों तथा देश के क्रान्तिकारियों के अंग्रेजों से असहयोग एवं क्रान्किारी गतिविधियों के कारण अंग्रेजों को अपना बोरिया बिस्तर समेट कर अपने देश लौटना पड़ा। जाते समय वह देश की आजादी कांग्रेस पार्टी को दे गये और देश के दो टुकड़े भी कर गये। जिन्होंने कहा था कि विभाजन मेरी लाश पर होगा वह भी देखते रह गये। हिन्दुओं को इस स्वतन्त्रता एवं विभाजन से जानमाल की सबसे अधिक हानि हुई। कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं की भूमिका भी पाकिस्तान से आने वाले हिन्दुओं के हितों के विरुद्ध व अमानवीयता से पूर्ण थी। हिन्दुओं को यह जो दुःख झेलने पड़़े, यह उसकी अपनी गलत धार्मिक एवं सामाजिक नीतियों, परम्पराओं एवं विचारों की देन थे। यदि सभी हिन्दुओं ने ऋषि दयानन्द की बातें मान ली होती तो देश का मानचित्र कुछ और ही होता।
हम आज भी धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वासों तथा कुरीतियों से ग्रस्त हैं। आज भी हमारे समाज और देश में भेदभाव और जन्मना जातिवाद जैसी बुराईयां हैं। आर्यसमाज सभी अन्धविश्वासों व सामाजिक बुराईयों का खण्डन करता है। देश को अन्धविश्वासों एवं बुराईयों से मुक्त कराने के लिये आर्यसमाज ने सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय कार्य किया है। आर्यसमाज का उद्देश्य अविद्या का नाश तथा विद्या की वृद्धि अभी पूरा नही हुआ है। यह कार्य कुछ वर्षों व दशकों में पूरा होने वाला नहीं है। इसे पूरा करने में शताब्दियां लग सकती हैं। इसके लिये आर्यसमाज को तैयार रहना होगा। कह नहीं सकते कि आर्यसमाज लम्बे समय तक वेद प्रचार का आन्दोलन व संघर्ष जारी रख पायेगा या नहीं? वेद प्रचार आन्दोलन ही देश व समाज को आधुनिक बनाने के साथ प्राचीन आध्यात्मिक मूल्यों व संस्कारों से जोड़कर रख सकता है। इसकी आज सबसे अधिक आवश्यकता है। इससे पूर्व की चर्चा को विराम दें हम स्वामी श्रद्धानन्द पुस्तक के लेखक स्व. पं. सत्येदव विद्यालंकार तथा प्रकाशक हितकारी प्रकाशन समिति का हृदय से धन्यवाद करते हैं। हमने इस लेख की सामग्री इसी पुस्तक से ली है। हम पटियाला के आर्यों को जिन्होंने वैदिक धर्म का अनुयायी होने के कारण अंग्रेजों से अनेक दुःख झेले व यातनायें सहीं और देश के आजाद होने के बाद भी वह सरकारों की ओर से सदा उपेक्षित रहे, उन सबको नमन करते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य