ईश्वर सर्वशक्तिमान है परन्तु वह सम्भव व असम्भव सब कुछ नहीं कर सकता
ओ३म्
हमारा यह जगत ईश्वर के द्वारा रचा गया अथवा बनाया गया है। ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना जीवों को जन्म व मृत्यु प्रदान करने के लिये की है। ईश्वर जीवात्माओं को जन्म इस लिये देता है कि जीवों ने पूर्वजन्मों या पूर्व कल्प में जो कर्म किये थे, उनका सुख व दुःख रूपी फल उसने उन्हें देना था। यदि वह सृष्टि न बनाता तो ईश्वर पर यह आरोप लगता कि वह सर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञ नहीं है। यदि वह ऐसा होता तो उसने सृष्टि क्यों नहीं बनाई? यदि सृष्टि न बनती तो सभी जीव जन्म न ले पाते एवं धर्म, परोपकार, श्रेष्ठ कर्म व पुरुषार्थ आदि न कर पाते। जन्म लिये बिना जीवों की दुःखों आदि से मुक्ति भी न होती। इन कुछ कारणों से ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है। ईश्वर, जीवात्मा और सृष्टि का कारण प्रकृति, यह तीन अनादि कारण व सत्तायें हैं। ईश्वर सहित अनन्त जीवात्माओं व अनन्त परिमाण वाली इस सृष्टि का कभी विनाश अर्थात् अभाव नहीं होता है। विनाश व नाश का अर्थ अभाव होना नहीं अपितु अपने कारण में विलीन हो जाना होता है जो अत्यन्त सूक्ष्म कणों के रूप में सृष्टि में विद्यमान रहते हैं। अतः ईश्वर सहित तीनों अनादि व नित्य सत्ताओं ईश्वर, जीव व प्रकृति का अस्तित्व सदैव बना रहता है। सभी जीवात्मायें स्वयं अर्थात् बिना ईश्वर के सहाय, उसके द्वारा सृष्टि बनाये और उसके द्वारा जीवों को जन्म दिये बिना, स्वयं सृष्टि की रचना और जन्म प्राप्त नहीं कर सकते। यह कार्य ईश्वर ही कर सकता है। ईश्वर धार्मिक, दयालु, कृपानिधान तथा प्रत्येक वा सभी जीवों का हित व कल्याण चाहने वाला है। अतः वह जीवों के कल्याण व हित के लिये अनादि काल से जड़ स्वभाव वाली प्रकृति से इस सृष्टि की रचना व पालन सहित प्रलय करता चला आ रहा है और भविष्य में भी यह क्रम जारी रहेगा। इस क्रम वा प्रवाह का कभी अवसान नहीं होगा। जीव जन्म व मरण के बन्धन में फंसे हुए हैं। ईश्वर का साक्षात्कार कर ही जीवों को मोक्ष अर्थात् दीर्घ अवधि के लिये जन्म व मरण से अवकाश की प्राप्ति होती है। ईश्वर के साक्षात्कार के लिये वेदों का अध्ययन तथा वेदों की शिक्षा के अनुसार कर्म, पुरुषार्थ, साधना, कर्तव्य पालन, सदाचारयुक्त जीवन आदि का व्यवहार जीव को करना होता है। इसके लिये वेद सहित योग-दर्शन, ऋषि दयानन्द का सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद, दर्शन आदि अनेक ग्रन्थ हमारे पास हैं जिनसे हम मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हैं।
ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सृष्टिकर्ता, अनादि व नित्य है। ईश्वर धार्मिक स्वभाव से युक्त है। वह धर्म व अपने कर्तव्य विधान के अनुसार जो उसका अपना स्वभाव है, उसका पालन करता है तथा उसका कभी अतिक्रमण व उल्लंघन नहीं करता। यदि ऐसा करेगा तो फिर वह अपने विधान से च्युत होकर ईश्वर नहीं रहेगा और उसके न्याय व पक्षपातरहित स्वभाव का पालन नहीं हो सकेगा। ईश्वर अपने कर्तव्य विधान में बंधा हुआ है। वह जीवों के सभी कर्मों का साक्षी होता है और उनके प्रत्येक कर्म का फल देता है। जीवात्मा के अतीत व वर्तमान के किसी भी कर्म का बिना फल भोगे नाश व उन्मूलन नहीं होता। इस कारण से ईश्वर को सर्वशक्तिमान कहा जाता है क्योंकि वह सृष्टि की रचना, पालन व प्रलय सहित जीवों के कर्म फल विधान का संचालन करने में किसी की सहायता नहीं लेता और यह कार्य व व्यवस्था वह अनादि काल से सुचारू रूप से करता चला आ रहा है और आगे भी सुगमतापूर्वक करता रहेगा। इस कारण से ईश्वर सर्वशक्तिमान कहलाता है। इसका यह अर्थ नहीं होता कि ईश्वर सब कुछ या कुछ भी कर सकता है। धार्मिक जगत में कुछ अल्प-ज्ञानी व अन्धविश्वासी लोग ऐसा मानते हैं कि ईश्वर सब कुछ व कुछ भी कर सकता है। ऐसे लोगों से कुछ प्रश्न किये जा सकते हैं जिनका उत्तर उनके पास नहीं है।
पहला प्रश्न तो यही है कि यदि वह सर्वशक्तिमान से यह अर्थ निकालते हैं कि ईश्वर सब कुछ कर सकता है तो वह बतायें कि क्या ईश्वर अपने ही समान दूसरा ईश्वर बना सकता है? दूसरा ही क्यों उनके अनुसार तो वह सर्वशक्तिमान होने के कारण एक या दो नहीं, अपितु कई ईश्वर बना सकता होगा? यह बात तर्क व युक्ति के अनुरूप नहीं है। हम सब जानते हैं कि ईश्वर ऐसा नहीं कर सकता। यदि करेगा भी तो ईश्वर जिस चेतन सत्ता का नाम है उसके लिये उस जैसी आवश्यक चेतन, निराकार, सर्वव्यापक तथा सर्वशक्तिमान सत्ता वा पदार्थ वह कहा से लायेगा? ईश्वर जिस प्रकार के चेतन पदार्थ से युक्त ज्ञानयुक्त सत्ता है, वैसी दूसरी सत्ता वा पदार्थ संसार में अन्य है ही नहीं। ईश्वर अपने स्वरूप व गुण-कर्म-स्वभाव वाली एकमात्र अनादि सत्ता व पदार्थ है। उसके अतिरिक्त उस जैसी सत्ता व पदार्थ ब्रह्माण्ड में अन्य नहीं है। ईश्वर ने स्वयं को भी नहीं बनाया है। किसी अन्य ने भी उसको नहीं बनाया है। ईश्वर अनादि व अजन्मा है। वह अभाव से भी भाव में नहीं आया है। अतः ईश्वर एक सत्ता है यह सर्वज्ञा वा पूर्ण सत्य है, परन्तु वह चाह कर भी और बिना चाहे भी, किसी भी प्रकार से अपने जैसे किसी दूसरे ईश्वर को अस्तित्व में नहीं ला सकती।
एक प्रश्न यह भी उत्पन्न हो सकता है कि क्या सर्वशक्तिमान होने के कारण ईश्वर अपने अस्तित्व का नाश व अभाव कर सकता है? इसका उत्तर भी ‘नहीं’ शब्द है। ईश्वर अपने अस्तित्व का नाश अथवा अभाव कदापि नहीं कर सकता। अतः जब हम ईश्वर को सर्वशक्तिमान कहते हैं तो हमें इस बात का ध्यान रहना चाहिये कि सर्वशक्तिमान का अर्थ प्रत्येक सम्भव कार्य को करने में समर्थ वह ईश्वर है। ईश्वर असम्भव तथा ज्ञान-विज्ञान विरुद्ध कोई असम्भव व चमत्कारिक कार्य नहीं कर सकता। इस विषय में हमारे विद्वान किसी भी अन्य मत व सम्प्रदाय के आचार्य व विद्वान से जो सर्वशक्मिान का अर्थ सब कुछ करने वाला मानते हैं, उससे चर्चा, वार्तालाप, विचार-विमर्श वा शास्त्रार्थ कर सकते हैं। हम समझते हैं कि किसी भी मत का कोई आचार्य इसके लिये कभी सहमत नहीं होगा। मत-मतान्तरों के कुछ आचार्य अपने अनुयायियों को कुछ मिथ्या बातें कहते व मनवाते रहते हैं। ऐसा ही एक सिद्धान्त पाप कर्मों को क्षमा करने का भी है। मनुष्य का कोई कर्म क्षमा हो सकता है, यह सर्वथा मिथ्या सिद्धान्त है। यदि ईश्वर ऐसा करेगा तो उसका न्याय उसी क्षण समाप्त हो जायेगा। ऐसे कार्य मनुष्य स्वार्थ व अज्ञानवश ही कर सकते हैं, परन्तु परमात्मा कदापि ऐसा नहीं करता। साधारण लोग ज्ञान व वेदाध्ययन से दूर रहते हैं इसलिये, मत-मतान्तरों के मिथ्या सिद्धान्तों का प्रचार समाज में अस्तित्व पा जाता है। हमें किसी भी सिद्धान्त को बिना विवेक व विश्लेषण के नहीं मानना चाहिये। ‘चंगई’ का सिद्धान्त भी सर्वथा मिथ्या व असत्य है। इसके चक्कर में कदापि नहीं फंसना चाहिये। योग्य चिकित्सकों से रोग का उपचार कराना चाहिये। रोग का निवारण योग्य चिकित्सकों के उपचार व भोजन-छादन में नियमितता तथा शरीर के लिये प्रतिकूल पदार्थों का त्याग करना है।
हम सभी मतों के विद्वानों से यह आशा करते हैं कि उन्हें अपने अनुयायियों को सर्वशक्तिमान शब्द व ईश्वरीय गुण का सत्य अर्थ बताना चाहिये। इस सर्वशक्तिमान शब्द का अर्थ यह है कि ईश्वर हर सम्भव कार्य को, जो ज्ञान व विज्ञान से सिद्ध होता है, उसे ही कर सकता है परन्तु असम्भव कार्यों को वह नहीं कर सकता। यह यथार्थ अर्थ व अभिप्राय ही सर्वशक्तिमान का है। हम आशा करते हैं कि हमारे पाठक इस विषय को भलीभांति समझते हैं परन्तु इस लेख के द्वारा हमने उनको इस विषय को स्मरण कराने के उद्देश्य से कुछ पंक्तियां लिखी हैं। हम आशा करते हैं कि हमारे पाठक हमारे इस प्रयास को पसन्द करेंगे। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य