गजल
फिर हृदय में कठिन वेदना है ,सखे!
मुझको तन्हा इसे झेलना है ,सखे !
इसको समझेगा कोई भला किस तरह,
पीर उर की, कठिन व्यंजना है ,सखे !
आदमी ,आदमी को डसेगा नही,
सिर्फ कोरी सी एक कल्पना है,सखे!
रोटियों का विभाजन ,तरीके से कर ,
ईश से बस यही याचना है सखे !
वह उदासीन है , जग के हर भाव से,
मुझको शमशान में बैठना है , सखे !
—– © डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी