कुंडलिया
“कुंडलिया”
उलझन में है गागरी, लेकर पतली डोर।
लटका रक्खी कूप में, यह रिश्ते की छोर।।
यह रिश्ते की छोर, भोर टपकाए पानी।
ठिठुर रही है रात, घात करती मनमानी।।
कह गौतम कविराय, न राह सुझाती सुलझन।
गोजर जैसे पाँव, लिए लहराती उलझन।।
उलझन मत आना अभी, लेकर अपने पाँव।
गाय बछेरु ठिठुरते, काँप रहा घर गाँव।।
काँप रहा घर गाँव, धूप बदरी को प्यारा।
खेल रहा है खूब, अनारी दिव्य नजारा।।
कह गौतम कविराय, हाय री बूँदें छनछन।
कँपा रही है देह, बढ़ाती बिनु ऋतु उलझन।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
बहुत बढिया