मुक्तक
“मुक्तक”
नहीं किनारे नाव है, नहीं हाथ पतवार।
सूख रहा जल का सतह, नहीं उदधि में धार।
नयन हुए निर्लज्ज जब, मन के भाव कुभाव-
स्वारथ की नव प्रीति है, नहीं हृदय में प्यार।।1
जल प्रवाह में कट रहे, वर्षों खड़े कगार।
आर-पार नौका चली, तट पर भीड़ अपार।
कैसा खेवनहार यह, नई नवेली नाव-
डर लगता है री सखी, है साजन उस पार।।-2
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी