ऋषिभक्त स्वामी श्रद्धानन्द जी को बलिदान दिवस पर सादर नमन
ओ३म्
आज स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती जी महाराज का पावन बलिदान दिवस है। आज 23 दिसम्बर के दिन ही सन् 1926 को एक अब्दुल रसीद नाम के हत्यारे ने उनकी उनके निवास पर ही धोखे एवं विश्वासघात से गोली मार कर हत्या कर दी थी। इसका कारण स्वामी श्रद्धानन्द जी के आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा का प्रचार प्रसार करना एवं उनके द्वारा अपने बिछुड़े हुए आर्य-हिन्दू धर्मबन्धुओं के धर्म की रक्षार्थ उनकी शुद्धि करना था। दूसरे लोग जब हमारे भाईयों का धर्मान्तरण करते हैं व करते थे तो उन्हें अच्छा लगता था परन्तु जब हमारे महापुरुष स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने ही बिछुड़े हुए भाईयों को अपने साथ मिलाने के प्रयत्न किये तो उन्होंने यह अमानवीय कार्य कराया व किया। हमें अपने ऋषि वा वेद निर्देशित कर्तव्य मार्ग पर आगे बढ़ना है और इस हिंसक प्रवृत्ति से सदैव सावधान भी रहना है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारा समाज दीर्घकाल तक रक्षित व सत्तावान नहीं रह सकता। स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन का यही सन्देश है कि वेद धर्म का प्रभावशाली रूप से प्रचार किया जाये, अपने किसी बन्धु का अनुचित तरीकों से धर्मान्तरण न होने दिया जाये और जो बन्धु भय, प्रलोभन, छल व बल से धर्मान्तरित किये गये हैं उनको अपने साथ जोड़ा जाये वा उनकी शुद्धि की जाये। यही विश्व में मानवता के सिद्धान्तों की वृद्धि करने वाला कार्य है। वेद धर्म का अनुयायी बनकर कोई भी मनुष्य सच्चा अहिंसक व सत्य का पुजारी बनता है। हमें सत्य और अहिंसा की शिक्षा वेद, वैदिक साहित्य, राम, कृष्ण, दयानन्द जी आदि महान पुरुषों से लेनी है। सत्य व अहिंसा का यथार्थ स्वरूप वेद आदि ग्रन्थों व वैदिक साहित्य सहित इन्हीं महापुरुषों के जीवन व विचारों में पाया जाता है।
स्वामी श्रद्धानन्द जी ने ऋषि दयानन्द के जीवन को अपने जीवन में आत्मसात कर उनके सभी कार्यों को अपनाया था और उन सभी कार्यों का विस्तार करने का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है। उन्होंने देश की आजादी के आन्दोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। गुलामी के दिनों में चादंनी चैक पर अंग्रेज सिपाहियों की संगीनों के सामने उन्होंने अपना सीना अड़ा दिया था और दहाड़ कर अंग्रेजी हकूमत को कहा था कि हिम्मत है तो मेरे सीने में मारो गोली। उनकी इस दहाड़ से बन्दूकें नीचे झुक गई थी। इतिहास में साहस एवं वीरता का ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। हमें इस अवसर पर स्वामी दयानन्द के उन शब्दों की याद आती है जिसमें वह कहते हैं कि यदि मेरे हाथ की उंगलियों को दीपक की बत्ती बनाकर या मुझे तोप के मुंह में बांध कर कोई मेरे सद्कार्यों को करने से रोकना चाहेगा तब भी मैं अपने प्राणों की परवाह न कर सत्य के लिये अपने प्राणों बलिदान कर दूंगा। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने सन् 1902 में देश में प्रथम वैदिक गुरुकुल की कांगड़ी-हरिद्वार में स्थापना कर एक अनुकरणीय एवं राष्ट्रीय महत्व का कार्य किया था। इस गुरुकुल से प्रेरणा लेकर आर्यसमाज के समर्पित विद्वानों व संन्यासियों ने अनेक गुरुकुलों की स्थापना एवं संचालन किया जिससे आर्यसमाज व देश को अनेक वैदिक विद्वान मिले और संस्कृत का देश देशान्तर में प्रचार हुआ। यह भी बता दें कि स्वामी श्रद्धानन्द जी ने लगभग आधा दर्जन गुरुकुलों की स्थापना की थी। स्वामी दर्शनानन्द जी भी स्वामी श्रद्धानन्द जी के समकालीन थे। उन्होंने भी अनेक गुरुकुलों की स्थापना कर वेदों के प्रचार व प्रसार में महत्वपूर्ण प्रशंसनीय स्मरणीय योगदान दिया है। शुद्धि का कार्य तो स्वामी श्रद्धानन्द जी ने किया ही था जिसके कारण उनका बलिदान हुआ। यह कार्य शिथिल पड़ गया है। अतीत में हमारे बहुत से भाई विधर्मी बनाये गये हैं। हमारा कर्तव्य है कि हम उन तक वेदो का सत्य एवं दिव्य सन्देश पहुंचायें और अपने बिछुड़े हुए भाईयों को अपने साथ मिलाये।
स्वामी श्रद्धानन्द जी आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के प्रधान भी रहे। आपके ही प्रधान पद पर रहते हुए ऋषि दयानन्द के वृहद जीवन का अनुसंधान कर उसको प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया था। इस काम के लिये महान ऋषिभक्त पं. लेखराम आर्य-मुसाफिर जी की सेवायें ली गईं थी। उन्होंने जिस उत्तमता से ऋषि जीवन की सामग्री संग्रह करने का कार्य किया और यात्राओं व अन्य अनेक कष्टों को सहकर इस काम को पूरा किया, उसके लिये उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाये वह कम है। आज हमें ऋषि दयानन्द के जीवन की जितनी प्रेरणादायक घटनायें विदित हैं उन सबके लिये हम रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी एवं रक्तसाक्षी स्वामी श्रद्धानन्द जी के ऋणी हैं। इन दोनों महापुरुषों का इस कार्य के लिये किया गया योगदान आर्यसमाज के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा है और यह दोनों महापुरुष अपनी सेवाओं के लिये सदा अमर रहेंगे। समाज सुधार का ऐसा कोई कार्य नहीं था व है जो स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपने हाथ में न लिया हो व उसको आगे बढ़ाने में लोगों को प्रेरणा न की हो। जब कभी आर्यसमाज पर किसी प्रकार की कोई मुसीबत आई तो उसको दूर करने के लिये भी स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपना महत्वपूर्ण योगदान किया। स्वामी जी ने अपनी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ सहित अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। समय-समय पर उनके अनेक ग्रन्थ प्रकाशित होते रहे हैं। विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रायः सभी ग्रन्थों का संग्रह श्रद्धानन्द ग्रन्थावली के नाम से दो संस्करणों में प्रकाशित किया है जो सम्प्रति सुलभ है। पाठकों को इससे लाभ उठाना चाहिये। वेदभाष्यकार आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार जी के यशस्वी पुत्र डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन पर एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है जिसका नाम है ‘‘स्वामी श्रद्धानन्द: एक विलक्षण व्यक्तित्व”। यह ग्रन्थ वस्तुतः विलक्षण ही है। इसका भी सभी ऋषिभक्तों को अध्ययन करना चाहिये।
स्वामी दयानन्द जी के बाद स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन भी अनेक महान कार्यों से युक्त, त्याग एवं समर्पण का आदर्श व अनुकरणीय जीवन है। आज उनके पावन बलिदान दिवस पर हम उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। ईश्वर हमें शक्ति दें जिससे हम उनकी प्रेरणा से ऋषि दयानन्द के कार्यों को यथाशक्ति आगे बढ़ाते रहे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य