विधा-सुगत सवैया
दुग्ध पिलाकर अपने उर का ,आँचल बीच समा लेती हो ।
अपने हाथों से सहलाकर, मन की थकन मिटा देती हो ।
बोध कराती ऊंच नीच का ,कर ममत्व की छाँव निराली ।
प्रथम शिक्षिका मात तुम्ही हो ,संस्कार सिखलाने वाली ।
अपने सुत के हित हितार्थ माँ ,तुम सर्वस्व लुटा देती हो ।
अपने हाथों से सहलाकर ,मन की थकन मिटा देती हो ।
मानव हो या पशु-पक्षी भी ,जननी तो जननी होती है ।
स्वार्थ ,कपट छल दम्भ से परे ,निश्छल माँ ममता होती है ।
पशु ,जीव नर और नारायण ,माता क्षुधा मिटा देती हो ।
अपने हाथों से सहलाकर ,मन की थकन मिटा देती हो ।
ऋणी हुआ मैं माता ऋण से , श्वाश श्वाश है कर्ज तुम्हारा ।
नहीं जुबां से कुछ कह पाऊं ,मैं बालक नादान तुम्हारा ।
विकल देख माँ अपने सुत को ,निज के दु:ख भुला देती हो ।
अपने हाथों से सहलाकर ,मन की थकन मिटा देती हो ।
— रीना गोयल