गीत
कट रहें हैं पेड़ देखो, ताल में घर बन रहे हैं ,
बन रहे हैं कंकरीटों के शहर, अब गाँव सारे,
ऐ प्रवासी पक्षियों अब तुम न आना !
जहर पीती हर नदी,और झील के सिमटे किनारे।
अब कहाँ चकवी निशा में,मीत को अपने पुकारे ?
कहाँ कोई क्रौंच विरहा में अकेला मर मिटेगा ?
उस विरह की पीर ,कवि, कविता में फिर कैसे उतारे?
कवि उजड़ती श्यामला को कब तलक बेवश निहारे?
ऐ प्रवासी पक्षियों……………………………
कोयलों बोलो कहाँ वो आम के उपवन गये ?
पक्षियों के गीत गुंजन कहाँ वो मधुवन गये ?
कहाँ पीपल और पाकड़ कहाँ बरगद खो गये,
कहाँ गौरैया ,शरद के कहाँ वो खंजन गये ?
किसलिए स्वाती बुलाऊँ? बस यही,चातक विचारे।
ऐ प्रवासी पक्षियो…………………………..
हर जगह फसलें जहर की बो रहा है आदमी ।
पाप ,भू,वायू में ,जल में धो रहा है आदमी ।
उगाता है बोनसाई, ,जंगलों को काटकर,
खुद को खा करके,मगर सा रो रहा है आदमी ।
बरगदों को काट कर,गमलों में बरगद मत उगा रे!
ऐ प्रवासी पक्षियों …………………………….
————————-©डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी , ,गोरखपुर