गुनगुना रहा हूं गीति के लिए
न राग के लिए न रीति के लिए,
कि दीप जल रहा अनीति के लिए।
न सांझ में सिमट सकती मधुर ये ज़िन्दगी,
न भोर में विहँस सकी निठुर ये ज़िन्दगी,
न कल्पना के कोर पर हँसा भोर का दीया,
न चांदनी से बुझ सका चकोर का हिया।
न हार के लिए न जीत के लिए,
कि चाँद चल रहा अतीत के लिए।
गर हँसों जो प्राण, तुम तो जिन्दगी हँसे,
खिल सको जो प्राण, तुम तो जिन्दगी हँसे,
एक प्रीति के लिए अलभ्य रीतियां चलें,
एक भाव के लिए प्रगल्भ गीतियाँ ढलें।
न जीत के लिए न प्रीति के लिए,
गुनगुना रहा हूँ गीति के लिए।
सांझ को समेट ले जब विरागिनी निशा,
रात्रि को सहेज ले जब सुहागिनी उषा,
रश्मि नूपुरों से जब झनझना उठे धरा,
एक ही अपांग से मन करो हरा भरा।
— कालिका प्रसाद सेमवाल