लघुकथा : सीधी-सच्ची बात
काँइं – काँइं करती हुई लँगड़ी कुतिया अपना टूटा पैर खींचती हुई बाहर चली गई | काकी ने बड़ी जोर से बेचारी कुतिया की पीठ पर डडोका (लट्ठ) जो मारा था |
काकी की ये हरकत आर्यन को कतई अच्छी नहीं लगी | वो रुआँसा सा होकर काकी से बोला – ‘काकी तुम बुरी हो, तुमने उस बेचारी कुतिया में डंडा क्यों मारा ? अगर तुम उसे रोटी का एक टुकड़ा भी नहीं डाल सकती तो कम से कम डंडा तो मत मारो | बेचारी का एक पैर टूटा है |’
‘अरे ! वो जाती कहाँ है ? कितनी बार भगाया, बार-बार आ जाती है |’ काकी झल्लाती हुई बोली |
‘और वो… तिलक वाला ! जो आड़े-तिरछे तिलक लगाकर रोज-रोज आता है | उसे तो तुम थाली भरकर आटा दे देती हो | देखा नहीं कितना मोटा-तगड़ा पट्ठा जवान है |’ आर्यन काकी पर गुस्सा होता हुआ बोला |
‘अरे बेटा ! वे ब्राह्मण देवता हैं, अगर उन्हें दान-दक्षिणा नहीं देंगे तो वे श्राप दे देंगे | समझे…!’ काकी आर्यन को समझाते हुए प्यार से उसके सिर पर हाथ फैरते हुए बोली |
‘पर… काकी, बेचारी उस लँगडी कुतिया का तो कोई घर नहीं, कोई खेत नहीं, उसके पास खाने को भी कुछ नहीं ऊपर से पैर भी टूटा और भूल से किसी के घर – आँगन चली जाये तो मार खाती है, फिर भी किसी को श्राप नहीं देती | कितनी अच्छी है न वो’…. आर्यन एक सांस में सीधी-सच्ची बात कह गया |
आर्यन के इस भोलेपन पर लट्टू होते हुए काकी ने उसे अपने सीने से चिपका लिया |
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा