कविता

सपने

जिन्दगी की रफ्तार में सपने खो जाते है,
उठते है, हसंते है, थमते है और गुम हो जाते है।
नादान है, मासूम है, बस आस ताकते है,
आंखो में भरे रह कर सफर दूर का करते है।
एक कोने में बैठे रहते, जरा नहीं गुस्साते है,
चमचमाती दुनिया से, थोड़ा तो शरमाते हैं।
चकाचौंध यहां, अंधाधुंध उजाला है,
रंगीं दुनिया में बस पैसे का बोलबाला है।
समाजवादी है हम, बस पैसे दिखते हैं,
कुछ सपनों के आगे, कुछ सपने बिकते हैं।
पर मौका मिलता तो थिरक उठते है,
खुद को जांचते, कमियां तराशते है।
निखरते है, संवरते है, इतिहास बदलते हैं,
“सपना हैं” पूरा करने का “सपना” देखते हैं ।

आस्था दीक्षित

निवासी- कानपुर