“लेबल” लगाने से बचिए
अकस्मात हम घंटे दो घंटे में किसी से बातचीत कर के उसके प्रति एक ठोस राय तैयार कर लेते हैं और फिर उसी राय से हम उस व्यक्ति के चाल -चलन, पालन -पोषण , रहन -सहन ,पढाई-लिखाई ,राजनीतिक समझ ,सामाजिक सरोकर इत्यादि सब के विषय में जान लेते हैं। लेकिन यह न केवल गलत है बल्कि हानिकारक भी है। इस बात को एक छोटे उदाहरण से समझा जा सकता है। सरकारी ऑफिस में काम करने वाले चपरासी को ताउम्र हर जगह चपरासी ही समझा जाता है। उसकी क्षमता का आँकलन ऑफिस में गुजारे गए 8 घंटों से तय कर ली जाती है। वह व्यक्ति कहीं भी मिले तो ऑफिस के दूसरे आदमी उससे चपरासी समझ कर ही बातें करते हैं। उसके चपरासी होने से उसके अच्छा लेखक, अच्छा वक्ता ,अच्छा खिलाड़ी होने की तमाम सम्भावनाएँ सीमित कर दी जाती हैं। यह भी संभव है कि वह चपरासी ऑफिस के तमाम अधिकारियों से अच्छा आई क्यू (IQ) रखता हो ,उसकी शैक्षणिक योग्यता पी एच डी (PHD) के बराबर हो परन्तु चपरासी होने का साथ ही उस पर कमअक्ल ,दब्बू ,कमजोर और निरीह होने का लेबल लगा दिया जाता है। यह गलत इस परिपेक्ष्य से है कि इंसान को इंसान के रूप में देखने की जो कल्पना पुनर्जागरण (RENAISSANCE) और नवचेतना (REFORMATION )के समय में की गई थी ,वह सब धराशाई होता नज़र आता है।इंसान को इंसान के रूप में नहीं देखेंगे तो समाज के विनाशकारी विघटन की ओर ही हम लोग प्रेरित होंगे।
“तुमने अभी जितना देखा है,समझा है,जाना है
वो शायद बहुत कम है ,
कभी हटाओ इन सूखे पत्तों को तो पता चले, कि
अंदर ज़मीं कितनी नम है। ”
हम सबको पता है कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है और यह वैधानिक चेतावनी सिगरेट के हर डिब्बे पर लिखी होती है। लेकिन सिगरेट पीने वाले पर बुरा इंसान होने का लेबल चिपका देना कहाँ तक सही है ,यह अत्यंत सोचनीय प्रश्न है। हमारे समाज में इन अवधारणाओं को हमारे पूर्वजों द्वारा बनाए गए नैतिक नियमों से बहुत मजबूती मिली है। लेकिन पूर्वजों के द्वारा बनाए गए अवधारणाओं और नियमों को समय की कसौटी पर भी परखना होगा। अगर समय के साथ चीज़ें नहीं बदलती है तो ,या तो वो विसंगति का शिकार होती हैं या फिर मज़ाक और हास्य का। पुराने समय में लम्बे घूँघट करना सामाजिक परिवेश के अनुसार सही हो सकता है लेकिन आज जब स्त्रीवाद को लेकर एक क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुका है और सबके सामान हित और उनके दैहिक अधिकारों की बात हो रही है तो ,उस घूँघट को आज के परिदृश्य पर परखना होगा और फिर इसी क्रम में घूँघट का वर्चस्व और उपयोगिता या सामर्थ्य बहुत हद तक नगण्य नज़र आता है। लेकिन कई इलाकों में आज भी बिना घूँघट की महिलाओं को चरित्रहीन ,बद्तमीज़,कुलटा ,त्रियाचरित्र के सम्बोधनों से दोहन किया जाता है। उन पर समाज को दूषित करने का लेबल लगा दिया जाता है।
“खेलोगे-कूदोगे तो बनोगे खराब ,
पढोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब ”
यह कहावत हर भारतीय बच्चे को कहीं न कहीं और कभी न कभी सुनने को मिल ही जाती है और यह काम उनके परिवार वाले, पड़ोस वाले ,उनके शिक्षक और उनके ही समाज द्वारा किया जाता है। खेलने वाले बच्चों पर बुरा होने का लेबल और पढ़ने वाले बच्चों पर अच्छा होने का लेबल लगा दिया जाता है ,लेकिन यह कहीं से भी तर्कसंगत नज़र नहीं आता है। खेलने-कूदने वाला बच्चा/बच्ची आज सचिन तेंदुलकर , सायना नेहवाल ,मैरी कॉम के नाम से भी जाना जाता /जाती है और वही पर बहुत पढ़ने वाले बच्चे ओसामा -बिन -लादेन ,कद्दाफी और हिटलर के नाम भी जाने जाते है। हालाँकि इस मंतव्य का मतलब बिलकुल भी नहीं है कि बच्चों को पढ़ने -लिखने के लिए प्रेरित न किया जाए ,लेकिन यह राय जरूर है कि खेलने-कूदने वाले बच्चों को बुरा होने के लेबल से जरूर बचाया जाए।
इस लेबल के शिकार और ग्रसित इंसान कहीं न कहीं समय के साथ अपनी इच्छाओं और अपने सामर्थ्य से समझौता करना शुरू कर देता है। इससे समाज को एक बेहतर इंसान नहीं मिल पाता जो इस लेबल के बगैर बहुत ही उम्दा नज़र आता है। और जो लेबल लगा रहा है उसे भी अपनी आँखों पर पड़े धूल को साफ़ करना चाहिए और हर चीज़ को वैज्ञानिक और बौद्धिक नज़रिए से देखना चाहिए। जो इंसान मजबूत होता है ,उन्हें इन लेबल से कुछ ख़ास अंतर नहीं पड़ता वरना इसी देश में अँगुलीमाल से परिवर्तित हुए साधु की कहानी प्रसिद्ध नहीं होती। लेकिन हर इंसान को लेबल से उबरने के मौक़ा नहीं मिल पाता और उनकी सारी ज़िंदगी लेबल से निकलने की जद्दोजहद में चली जाती है ,इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है-हमारे बॉलीवुड के अभिनेता और अभिनेत्री ,जो किसी खास लेबल या टैग के चलते अपने मुकाम तक नहीं पहुँच पाते। यह हम सब की नैतिक और इंसानी जिम्मेदारी है कि किसी पर भी लेबल लगाने से बचें।
“तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो ,
हम हीं हम हैं तो क्या हम हैं। ”
— सलिल सरोज