पाँव अब उतने छोटे नही रहे
पाँव अब उतने छोटे नही रहे
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तुम्हें कागज़ की कश्तियों से
पार उतरना पसंद था
कभी उपहास करती थी मैं
तुम्हारी ये हल्की बातें सुन ..
शायद बचपना ही था मेरा
कि तुम तो पार उतर गये
हवाओं से रुख मिला
और मैंने ,,,?
एक उम्र गुजार दी यहाँ
लकडियाँ चुनते बीनते
जोड़-तोड़ -जीवन -कीलित करते ..
उस पार उतर पाने की
ख्वाहिश करते …..
टटोलती रहती हूँ अब
मुड़े-तुड़े पन्नों में लिपटा
तुम्हारा अपरिमित ज्ञान ..
जोड़ तो लिए हैं मैंने भी
कुछ एक कागज़ के टुकड़े
पर क्या कहूँ कि ..
पाँव अब उतने छोटे नही रहे
न ही ज़िन्दगी अब उतनी हलकी …..
प्रियंवदा अवस्थी