गीत/नवगीत

सीप के घर ठिकाना चाहती हूँ

सीप के घर ठिकाना चाहती हूँ

आज कुछ गुनगुना रहा है दिल
आज मैं गीत गाना चाहती हूँ।
धड़कने सुर सजा रही कुछ ऐसे
साज़ दिल का बजाना चाहती हूँ।।

महकते गेसुओं को झटककर
तुम्हें खुशबू उढाना चाहती हूँ ।
तुम चमक जाओ चाँद की तरह
तारे ऐसे सजाना चाहती हूँ।।

तार टूटे न साज़ ही रूठे
मेरे दिल की सुनाना चाहती हूँ।
बात कोई उठे न दर्द की शब भर
सुबह सी खिलखिलाना चाहती हूँ ।।

आब आंखों रहा और रूह प्यासी
एक समंदर समाना चाहती हूँ ।।
बूूंद मैै अब्र की ढल जाऊँ तपकर
सीप के घर ठिकाना चाहती हूँ ।।

प्रियंवदा अवस्थी

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से साहित्य विषय में स्नातक, सामान्य गृहणी, निवास किदवई नगर कानपुर उत्तर प्रदेश ,पठन तथा लेखन में युवाकाल से ही रूचि , कई समाचार पत्र तथा पत्रिकाओं में प्रकाशित , श्रृंगार रस रुचिकर विधा ,तुकांत अतुकांत काव्य, गीत ग़ज़ल लेख कहानी लिखना शौक है। जीवन दर्शन तथा प्रकृति प्रिय विषय । स्वयं का काव्य संग्रह रत्नाकर प्रकाशन बेदौली इलाहाबाद से 2014 में प्रकाशित ।