मुक्तक
“मुक्तक”
नया सवेरा हो रहा, फिर क्यों मूर्छित फूल।
कुछ रहस्य इसमें छुपा, मत करना फिर भूल।
बासी खाना देखकर, क्यों ललचायें जीव-
बुझ जाएगी चाँदनी, शूल समाहित मूल।।
नित नव राह दिखा रहे, कुंठा में हैं लोग।
बिना कर्म के चाहते, मिल जाए मन भोग।
सही बात पर चीखते, झूठों के सरदार-
समझ न आए नियम तो, कर लें थोड़ा योग।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरीी