परिपूर्णता
परिपूर्णता
हां! हो तुम
हृदय में , जैसे
मृग के कुंडल में
स्थित कस्तूरी,
आभामंडल सा
व्याप्त है तुम्हारे
अस्तित्व का गंध,
जो जगाए रखता
है निरंतर एक
प्यास मृगतृष्णा सी,
हां मृगतृष्णा सी -….
एक अभिशप्त
तृष्णा जो जागृत
रखती है अपूर्णता
के एहसास को
मृत्युपर्यंत …..
हां ये अपूर्णता
ही तो परिपूर्ण
करती है जीवनचक्र,
नहीं होना मुक्त
इस एहसास से,
बस यूं ही कस्तूरी
सा बसे रहो
हृदय तल में,
जिसकी गंध से
अभिभूत एक
विचरण जो
जीवित रख सके
मृत्यु तक….