अपने अपने दायरे
आफिस से घर आते ही जैसे घर पर पाँव रक्खा था मोबाईल की घंटी बजनी शुरू “टिऱन टिऱन” रोज़ ऐसे ही होता था। न खाने का कुछ समय, न चाय का, न ही किसी और काम का। बस या तो मोबाईल की घंटी बज जाती या वाट्सअप, फ़ेसबुक का खेल ज़ारी रहता।
नीरा जो पूरे दिन घर पर रहती अब तंग आ गई थी अनुज के इस रवैये से। कोई समय ऐसा नहीं था जब मोबाईल हाथ में ना रहता हो। उसने भी कुछ दिन मोबाईल का खेल खेला परंतु ज़िम्मेदारियों से अपनेआप को घिरा हुआ पाया।
एक दिन तो हद ही हो गई जब बेटी के लिये किसी इंस्टीट्यूट में एडमिशन कराना था तब भी वह अपने काम में व्यस्त था। नीरा से आज चुप नहीं रहा गया उसने पूछ ही लिया “ आपसे बात किस समय करूँ? हर समय आप मोबाईल में लगे रहते हो या अपने काम में व्यस्त।”
बस फिर क्या था? अनुज ने सुनाना शुरू कर दिया। या तो वह चुप रहता था या फिर मार-पीट पर उतर आता था और साथ- साथ उसके माँ- बाप को भी उल्टा-सीधा बोलने लगता था। आज भी ऐसे ही हुआ। परंतु आज वह चुप ना रही क्योंकि बच्चे बड़े हो रहे थे और उनके आगे इस तरह रोज़-रोज की किट-किट उसको अच्छी नहीं लग रही थी और ऊपर से माँ-बाप के लिये ग़लत शब्द।
वह निर्णय ले चुकी थी उसने अनुज से सीधे-सीधे कह दिया कि “अब हमें अपने-अपने दायरे में ही रहना पड़ेगा। आपका और मेरा संबंध सिर्फ़ दिखावा मात्र रह गया है बाकि सब ख़त्म! बोलचाल बंद?”
मौलिक रचना
नूतन गर्ग (दिल्ली)