ग़ज़ल
क्या अज़ब दीवानगी है।
चार दिन की दोस्ती है,
चार दिन की ज़िन्दगी है।
भूलना मुमकिन नहीं है,
याद भी जाती नहीं है।
ख़्वाब भी टूटे पड़े हैं,
आस भी गिरवी पड़ी है।
मैं बुरा हूँ मानता हूँ,
आपमें भी कुछ कमी है।
प्यार है तो सोचना क्या,
क्या गलत है क्या सही है।
आँख को तक़लीफ़ है क्यों,
चोट तो दिल पर लगी है।
वह गया है बाद उसके,
रह गयी नेकी-बदी है।
इश्क़ है इक खेल जिसमें,
एक नट है इक नटी है।
आपका है नाम इसमें,
यह ग़ज़ल मैंने कही है।
बदल पाया है नहीं कुछ,
आज भी ‘गुलशन’ वही है।
— अशोक “गुलशन”