कविता

हे प्रिये मैं उठा… तुम भी उठो 

निशब्दता की ओढ़े चादर ,
सोया हुआ था मैं मौन |
तभी मन पर दस्तक हुई
मैंने अनायास पूछा – कौन ?
कोई प्रतिक्रिया न पाकर
मैंने देखा झाँककर बाहर |
भावनाओं के अहाते के उस पार
कुछ शब्द उछल रहे थे |
मुझे बाहर तक खींच लाए वहाँ ,
जहाँ स्वछन्द आकाश में
चाँद अक्सर तारों से बतियाता है …
उसकी मौन अभिव्यक्ति के
साक्षी थे आँगन के पार कुछ पेड़
जो कभी गर्दन हिलाकर सहमति दे जाते थे |
इस अद्भुत नीरवता से जन्मी
उस विरल शांति का कोई पर्याय
मैं शायद ही कभी खोज पाऊँ |
सब कुछ ठहरा हुआ सा है
न भागदौड़  न कशमकश
और न ही कोई जल्दबाजी ….
सब कुछ चाँदनी में स्पष्ट
न कोई भ्रष्टाचार न जालसाजी |
सपना टूटा …..जैसे कोई अपना रूठा
वही काटने को तत्पर हाथ ,
साजिश और षड़यंत्र  रचते रचते
खौफनाक मस्तिष्क ….
रिश्तों को तार-  तार करने का
 उद्घोष करती अखबार की कतरनें ,
वही लोग बेचैन और अनमने ….
वही झटपटाहट ,
 फिर स्वप्न का प्रयास
अहा ! अद्भुत …..
मौन के लिबास में कितना आराम है ,
सर्वत्र गीता का भाव निष्काम है ….
सोया रहूँ इसी तरह ?
नहीं …करना होगा उठकर सामना
यथार्थ का, पलकों पर जमी आलसता
की काई को तोड़ना होगा ….
मैं उठा ……तुम भी उठो …..
खुली आँखों से सच का सामना करो ….
हे प्रिये ! मैं बढ़ा …तुम भी बढ़ो …..
 मैं उठा …तुम भी उठो ..
— मनोज कुमार  “मनुज” 

मनु

शिक्षक , साहित्यकार जी आर ग्लोबल अकादमी जयपुर , राजस्थान - 302012 मो० 8058936129