धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

काश कि बुद्ध आज भी होते……

Buddha Statue and sunset background

प्रतीक्षा में बैठी यशोधरा के लिए सिद्वार्थ नहीं आया करते हैं,केवल बुद्ध आते हैं लेकिन केवल यशोधरा के लिए नहीं बल्कि जन्म और मृत्यु के कालखंड पर व्याकुल होते हर प्राणी के लिए। बुद्ध के पूर्वाध में जो सिद्धार्थ थे उन्हें अपनी यशोधरा का प्रेम अवश्य नज़र आता था लेकिन उत्तरार्ध में ज्ञान चक्षु खुलने के उपरान्त मोह के हर बंधन से उबरे हुए बुद्ध को हर प्राणी में केवल व्याकुल आत्मा ही दिखाई देती थी। वही आत्मा जो एक दिन सिद्धार्थ को बुद्ध बनने की परिकल्पना से हावी होती है और मोक्ष के मार्ग पर बढ़ने के लिए आंदोलित कर देती है। आत्मा ,किस तरह नैसर्गिक रूप से निर्बाध होकर स्वछन्द रूप से हवा की तरह बहने लगती है ,इस मर्म की तलाश एक साधारण इंसान को भी असाधारण होने पर विवश कर देती है। बुद्ध बनना सामाजिक विपरीत परिस्थितियों से भागना नहीं हो सकता भले ही आजन्म यशोधरा इस कोप का भाजन सिद्धार्थ को बनाने पर आतुर रहे। बुद्ध बनना नई सामाजिक संरचना करने की परम इच्छा से उद्धृत होती है। जो है ,वह सबको दिखता है लेकिन जो नहीं है या जो हो सकता है, की अद्भुत दृष्टि प्राप्त करने के लिए हर सिद्धार्थ को बुद्ध बनना पड़ता है नाकि यशोधरा के कारुणिक रूदन में फँस कर भौतिक जीवन का ग़ुलाम। कुछ भी नूतन बनाने के लिए स्वयं में भी नूतनता का संचार करना होता है।सिद्धार्थ बनकर वो सब प्रक्रियाएं नहीं संभव हैं जो बुद्ध बनकर।सिद्धार्थ ज्ञान से उपेक्षित एक सामान्य मनुष्य की तरह हल ढूंढ सकने भर का संतोष मात्र है जबकि बुद्ध होना सवाल की उत्पत्ति से लेकर कारण,निदान तथा पुनः वही रोग न उत्पन्न होने का सटीक उपाय है।सामाजिक अवचेतना का विघटन और नई सामाजिक जागरूकता की पैदावार एक बुद्ध ही कर सकता है। वर्त्तमान काल समस्यायों से भरा है जहां उपाय किसी ख़ास वर्ग के द्वारा ईजाद किया जाता है जिसका लाभ भी किसी ख़ास वर्ग को ही मिलता है और समाज का बड़ा हिस्सा उत्तर की प्रतीक्षा में आज भी किसी यशोधरा सी बुद्ध की प्रतीक्षा में बैठा दिखाई देता है। पूर्ण समाधान वह है जो आपेक्षिक रूप से वृहत जनमानस तक बिना किस भेद-भाव से पहुँच सके। आज दुनिया कितने ही रोगों और व्याधियों से ग्रसित है जहां एक दिन की ज़िंदगी जीने के लिए भी कितनी मिन्नतों से गुजरन पड़ता है। बुद्ध यह सब बिना किसी प्रेम और घृणा के निदान हासिल करने की परब्रह्म कोशिश है। काश कि बुद्ध को महापरिनिर्वाण नहीं मिला होता और वो यहीं-कहीं हम सब के बीच होते और ज्वालामुखी पर टिकी हुई मानवता का रोग दूर कर रहे होते। हम यशोधरा तो बन जाते हैं लेकिन कोई बुद्ध क्यों नहीं बन पाता। यशोधरा पैदा की जा सकती है लेकिन बुद्ध बनना पड़ता है और यह काश इतना दुरूह नहीं होता।

— सलिल सरोज

*सलिल सरोज

जन्म: 3 मार्च,1987,बेगूसराय जिले के नौलागढ़ गाँव में(बिहार)। शिक्षा: आरंभिक शिक्षा सैनिक स्कूल, तिलैया, कोडरमा,झारखंड से। जी.डी. कॉलेज,बेगूसराय, बिहार (इग्नू)से अंग्रेजी में बी.ए(2007),जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.ए(2011), जीजस एन्ड मेरी कॉलेज,चाणक्यपुरी(इग्नू)से समाजशास्त्र में एम.ए(2015)। प्रयास: Remember Complete Dictionary का सह-अनुवादन,Splendid World Infermatica Study का सह-सम्पादन, स्थानीय पत्रिका"कोशिश" का संपादन एवं प्रकाशन, "मित्र-मधुर"पत्रिका में कविताओं का चुनाव। सम्प्रति: सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिश। आजीविका - कार्यकारी अधिकारी, लोकसभा सचिवालय, संसद भवन, नई दिल्ली पता- B 302 तीसरी मंजिल सिग्नेचर व्यू अपार्टमेंट मुखर्जी नगर नई दिल्ली-110009 ईमेल : [email protected]