कविता

क्या इतने गरीब हैं हम

उम्मीद लिए छोटी सी, प्रातःकाल वह निकल जाता है,
उम्मीद बड़ी रखने का, कोई कारण भी कहां होता है,

फुटपाथ के एक छोटे से कोने में, वह दुकान लगाता है,
आने जाने वाले राहगीर के, कदमों को तकता जाता है,

ब्रांडेड की दुनिया में अब, जूते जल्दी कहां फटते हैं,
तब आते थे दस ग्राहक, अब इंतज़ार में लम्हे कटते हैं,

दिन भर में इक्का-दुक्का ग्राहक, जो दुकान पर आते हैं,
सौदे बाजी करके, अक्सर वो भी वापस ही लौट जाते हैं,

जब हम चलते सड़कों पर जूतों की सोल घिस जाती है,
हाथ उसका लगते ही, नई ज़िंदगी जूतों को मिल जाती है,

पुरानी जोड़ी नई कर देता, नये का पैसा तो बच जाता है,
किंतु मेहनताना देने में इंसान, कम अवश्य ही करवाता है,

दिन भर थक कर वह बेचारा, कितना कमा पाता होगा,
रोटी बनती होगी, सब्जी का जुगाड़ कहां हो पाता होगा,

सर कदमों पर झुका कर, हाथ में उनके जूता होता है,
चमका कर जूतों को मजदूरी के लिए गुज़ारिश करता है,

और चमकाओ भैया जूता, हम ज़ुबान चलाते ही जाते हैं,
क्या इतने गरीब हैं हम ? जो पूरे पैसे देने में कतराते हैं।

— रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

रत्ना पांडे

रत्ना पांडे बड़ौदा गुजरात की रहने वाली हैं । इनकी रचनाओं में समाज का हर रूप देखने को मिलता है। समाज में हो रही घटनाओं का यह जीता जागता चित्रण करती हैं। "दर्पण -एक उड़ान कविता की" इनका पहला स्वरचित एकल काव्य संग्रह है। इसके अतिरिक्त बहुत से सांझा काव्य संग्रह जैसे "नवांकुर", "ख़्वाब के शज़र" , "नारी एक सोच" तथा "मंजुल" में भी इनका नाम जुड़ा है। देश के विभिन्न कोनों से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र और पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। ईमेल आई डी: [email protected] फोन नंबर : 9227560264