ग़ज़ल – नारे जहाँ लगे थे कभी इंकलाब के
सब लोग मुन्तज़िर है वहाँ माहताब के ।
चेहरे पढ़े गए हैं जहाँ इज्तिराब के ।।
छुपता कहाँ है इश्क़ छुपाने के बाद भी ।
होने लगे हैं शह्र में चर्चे ज़नाब के ।।
दौलत के नाम पर वही भटके मिले सुनो
किस्से सुना रहे थे जो मुझको सराब के ।।
बदला ज़माना है या मुकद्दर खराब है ।
मिलते नहीं हैं यार भी अपने हिसाब के ।।
साज़िश रची गयी है वहीं देश के ख़िलाफ़ ।
नारे जहाँ लगे थे कभी इंकलाब के ।।
साकी उसे पिलाने की ज़िद कर न बारहा ।
जो जी रहा है मुद्दतों से बिन शराब के ।।
नाज़ ओ नाफ़ासतों से वो मगरूर क्यूँ न हों ।
जब दाम लग रहे हैं सनम के हिज़ाब के ।।
अब तक है खुश्बुओं से मुअत्तर चमन मेरा ।
भेजे थे तुमने फूल जो मुझको ग़ुलाब के ।।
दरिया ए आग इश्क़ है कुछ तू ज़रा सँभल ।
जलते दिखे हैं हाथ यहाँ आफ़ताब के ।।
देखा है किस निगाह से मैने तुझे ऐ चाँद ।
जा पढ़ तू मेरे शेर वो पहली क़िताब के ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी