गीतिका
मुझको बसंत चुभने लगा तीर की तरह ।
कोयल का गीत,आह भरी पीर की तरह।
मस्तिष्क के गगन पे,यादों के घन घने ,
बनते हैं बिगड़ते हैं, तस्वीर की तरह ।
ख्वाबों की भीड़ आई ,करती है शोरगुल,
नींदों को काट देती है ,शमशीर की तरह।
मन मानता नही हैं,मिलने की जिद करे,
मजबूरियाँ खड़ी हैं , प्राचीर की तरह ।
जीवन है भूमि युद्ध की,कर्तव्य युद्ध हैं,
हर साँस पे लड़ता रहूँगा,वीर की तरह।
———————–© डॉ.दिवाकर दत्त त्रिपाठी