गीतिका
खेतियाँ जब जहर की करे आदमी ।
तो बताओ कि क्यों न मरे आदमी ?
हर तरफ से प्रकृति को चरा आपने ,
क्यों प्रकृति आपको न चरे, आदमी?
अन्न ,पशु,कीट,खग,मत्स्यकुल खा गया,
राक्षसों सा उदर; तू भरे आदमी !
आग से खेलना तुझको महँगा पड़ा,
अपनी ही आग में अब जरे ,आदमी ।
कंकरीटों के जंगल बिछाता है तू !
काट कर ,फूँककर , वन हरे, आदमी!
© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी