ईश्वर सुयोग्य व पात्र भक्त व उपासकों की प्रार्थना स्वीकार करता है
ओ३म्
मनुष्य अपने पूर्वजन्म के कर्मों वा प्रारब्ध के अनुसार इस सृष्टि में जन्म लेता है। उसने जो कर्म किये होते हैं उनका सुख व दुःख रुपी फल उसे अवश्य ही भोगना होता है। जाने व अनजानें में मनुष्य जो कर्म करता है उसका कर्म के अनुसार परमात्मा की व्यवस्था से फल अवश्य मिलता है। मनुष्य को सुख व दुःख मिलने का एक अन्य कारण आधिदैविक, आधिभौतिक तथा आध्यात्मिक सुख व दुःख भी होते हैं। मनुष्य सुख की कामना तो करता है। दुःखों, रोगों व प्रतिकूल परिस्थितियों से सभी लोग बचना चाहते हैं। इसका प्रथम उपाय तो यही होता है कि हम सब सद्ज्ञान अर्थात् ईश्वर, आत्मा व सृष्टि विषयक ज्ञान प्राप्त करें और उस ज्ञान के अनुसार उन कर्मों का सेवन करें जिनका परिणाम दुःख न हो। हमें ऐसे कर्म करने चाहियें जिनके करने से दुःख होने की सम्भावना न हो। हम ऐसे कर्मों को करें जिनसे हमें सुखों की प्राप्ति हो। प्रायः अधिकांश लोग ऐसा ही करते हैं। इसके साथ ही मनुष्य अज्ञानतावश राम व द्वेष में फंस कर दूसरों से द्वेष करता है। उसमें लोभ की प्रवृत्ति भी होती है। इन लोभ व द्वेष के वशीभूत होकर कर्म करने से उसे कई बार दुःख प्राप्त होता है। लोभ में मनुष्य पाप व पुण्य का विचार नहीं करता है। पाप व पुण्य को विस्मृत कर वह अपनी आकांक्षा को पूरा करने में प्रवृत्त होकर उसे प्राप्त करता है व उसमें संलग्न रहता है। उसे पता नहीं होता है कि उसने जिस इष्ट को प्राप्त किया है उसमें उसने पाप व पुण्य में से किन व किस प्रकार के कर्मों का सेवन किया है। यदि उसने कोई पाप कर्म किया होता है तो उसके परिणाम से उसे कालान्तर में दुःख अवश्य मिलेगा।
यह भी एक सिद्धान्त है कि जिस प्रकार से फल के पक जाने पर उसका उद्देश्य पूरा होता है उसी प्रकार से पाप व पुण्य वाले कर्मों का फल भी उन कर्मों के परिपक्व अर्थात् पक जाने पर ही मिलता है। ऐसा नहीं होता कि सभी कर्मों का फल कर्म करते हुए साथ साथ मिले। कर्म क्रियमाण एवं संचित दो प्रकार के होते हैं। क्रियमाण कर्मों का फल साथ साथ या कुछ ही समय बाद मिल जाता है। हमें पता होता है कि कौन सा फल हमारे किस कर्म का है। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिनका फल देर से मिलता है। कई कर्म तो ऐसे हो सकते हैं जिनका फल हमें इस जन्म व कई जन्मों के बाद में मिले। इन कर्मों का पूरा ज्ञान व स्मृति परमात्मा को हमारे रहती है। पुण्य कर्मों की चिन्ता करने की तो मनुष्य को आवश्यकता नहीं होती। उनका फल तो उसे सुख के रूप में मिलता है परन्तु पाप का फल दुःख के रूप में मिलना होता है। वह कब व किस रूप में मिलेगा इसका हमें पता नहीं होता। हम भी अपने अन्य अन्य कार्यों में व्यस्त रहते हैं। समय आता है जब हमें शारीरिक कष्ट, साधनों का अभाव व इष्ट की प्राप्ति न होने पर दुःख होते हैं। हमारे प्रयत्न व पुरुषार्थ भी कई बार कुछ कार्यों को करने पर सफल नहीं होते जिससे हमें निराशा व दुःख की प्राप्ति होती है। दुःख कैसा भी हो उसे हमें भोगना होता है। अतः हमें अपने मन व भावना को सम्भावित दुःखों को सहन करने के लिये तैयार रहना चाहिये। दुःख आयें तो उसे दूर करने के उपाय करने चाहिये।
बहुत से दुःख ऐसे होते हैं जिनका हमारे पूर्व व वर्तमान के कर्मों से संबंध नहीं होता। आज कोरोना नामक रोग फैला हुआ है। सब इसके खतरे से आतंकित हैं। देश विदेश में हाहाकार मचा हुआ है। हमने अपने सड़सठ वर्ष के जीवन काल में ऐसी स्थिति नहीं देखी जो वर्तमान में देख रहे हैं। इस रोग व इसके परिणामों पर विचार करते हैं तो इसे हम दुर्भिक्ष व आपदा कह सकते हैं। यह या तो कुछ प्राकृतिक विकारों व विकृतियों के कारण से है या चीन आदि देशों के जैविक हथियार बनाने अथवा वहां जो नाना प्रकार के समुद्र, आकाश एवं पृथिवी पर विचरण करने वाले जीव-जन्तुओं की हत्या कर उनका मांसाहार किया जाता है, उसका परिणाम हो सकता है। यह वायरस एक जड़ पदार्थ है। उसे नहीं पता कि किस को पीड़ित करना व किसे नहीं करना है। वह तो जिसके, अच्छे व बुरे मनुष्य के, सम्पर्क में आता है उसे ही पीड़ित करता है। विश्व में इस रोग के कारण लगभग चैबीस हजार लोग काल के ग्रास बन चुके हैं। यह व ऐसे रोग आधिदैविक, आधिभौतिक व आध्यात्मिक प्रकृति के ही कहे जा सकते हैं। इनका हमारे कर्मों या पाप पुण्य से प्रायः सम्बन्ध नहीं होता। बचना हमें इनसे भी होता है जिसके उपाय हमारे चिकित्सक व वैज्ञानिक शोध करके हमें बताते रहते हैं। ऐसा होने पर भी हजारों व लाखों लोग इससे प्रभावित होकर अत्यन्त कष्ट की अवस्था को प्राप्त होते हैं और जो संक्रमित व रोगी नहीं भी होते उनको भी इन रोगों व संक्रमण से सुरक्षित रहने के लिये अनेक साधनों को करना होता है जिससे मनुष्य की सामान्य दिनचर्या में अवरोध आने से उसे दुःख व सन्ताप होता है।
मनुष्य सभी प्रकार के दुःखों से कैसे बचे, इसका उपाय अपना ज्ञान बढ़ाना तथा जीवन में होने वाली सुख व दुःख की स्थितियों को यथार्थरूप में समझना होता है। सुख व दुःख के स्वरूप व इनके कारणों को समझ कर उनसे बचने के लिये पुरुषार्थ करना होता है। इसके साथ ही मनुष्य को ईश्वर को जानकर व उसकी उपासना कर उसकी व्यवस्था में विश्वास करना होता है। ईश्वर की उपासना में प्रार्थना व स्तुति दोनों सम्मिलित होती है। स्तुति से मनुष्य ईश्वर के गुणों का चिन्तन करते हुए उन गुणों को अपने जीवन में धारण करने का प्रयत्न कर मनुष्यत्व से देवत्व को प्राप्त होता है। इसके साथ ही प्रार्थना करने से मनुष्य के अहंकार का नाश होता है। मनुष्य एक अल्पज्ञ एवं अल्प शक्ति वाला प्राणी होता है। अतः उसे अपने इष्ट की प्राप्ति के लिये अपने परिवारजनों सहित इष्ट-मित्रों, सम्बन्धियों तथा देश व समाज के अन्य लोगों से भी सहयोग की अपेक्षा रहती है। ऐसा करने पर भी कई बार उसे सफलता मिलने में सन्देह रहता है। इस स्थिति में यदि वह ईश्वर की उपासना करते हुए उससे प्रार्थना करता है तो उसे लाभ होता है। प्रार्थना क्या होती है, इसका स्वरूप क्या है, परमात्मा से कैसी प्रार्थना करनी चाहिये और कैसी नहीं, इस विषय में हम सत्यार्थप्रकाश से ऋषि दयानन्द के विचारों को प्रस्तुत कर रहे हैं। ऋषि दयानन्द सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना प्रकरण को प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार परमात्मा की स्तुति करने से ईश्वर में प्रीति होती है। उसके गुण, कर्म व स्भाव से ईश्वर की उपासना करने वाले मनुष्य के गुण, कर्म व स्वभाव का सुधार होता है। ईश्वर से प्रार्थना करने से मनुष्य में निरभिमानता सहित उत्साह और ईश्वर की सहायता प्राप्त होती है। ईश्वर की उपासना से ईश्वर और आत्मा का योग वा मेल तथा ईश्वर का साक्षात्कार होता है।
ईश्वर से क्या व किस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये, इसके लिये नमूने के रूप में ऋषि दयानन्द द्वारा सत्यार्थप्रकाश में दिये कुछ वेद मन्त्रों के भावों को प्रस्तुत करते हैं। ऋषि के अनुसार हमें ईश्वर को सम्बोधित कर प्रार्थना करनी चाहिये जैसे हे प्रकाशस्वरूप परमेश्वर! आप की कृपा से जिस बुद्धि की उपासना विद्वान्, ज्ञानी और योगी लोग करते हैं उसी बुद्धि से युक्त आप हमको वर्तमान समय में बुद्धिमान व विवेकवान कीजिये। हे प्रकाशस्वरूप परमात्मा! आप कृपा कर मुझ में भी ज्ञान व विद्या का प्रकाश स्थापित कीजिये। आप अनन्त पराक्रम से युक्त हैं। इसलिये मुझ में भी कृपाकटाक्ष से पूर्ण पराक्रम धरिये। आप अनन्त बलयुक्त हैं इसलिये मुझ में भी बल धारण कीजिये वा कराईये। आप अनन्त सामथ्र्ययुक्त हैं, मुझ को भी पूर्ण सामथ्र्य दीजिये व सामथ्र्यवान बनाईये। आप दुष्ट काम और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं, मुझ को भी वैसा ही कीजिये। आप निन्दा, स्तुति और अपने आलोचक व निन्दक अपराधियों को सहन करने वाले हैं, कृपा करके मुझ को भी वैसा ही कीजिये। एक प्रसिद्ध प्रार्थना यह है कि हे सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, सब सुखों के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यस्न और दुःखों को दूर कर दीजिये और जो कल्याणकारक गुण, कर्म स्वभाव व पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिये। इससे विदित होता है कि ईश्वर से हमें दुःख निवृत्ति और सुखों की प्राप्ति के लिये प्रार्थना करनी चाहिये और स्वयं भी अध्ययन द्वारा अपना ज्ञान बढ़ाकर दुःखों से निवृत्ति तथा सुखों की प्राप्ति के उपायों को जानकर उनका सेवन करना चाहिये। ऐसा करने से निश्चय ही हमारे दुःख दूर होंगे व कम होंगे और हमारा जीवन सुख व शान्ति से युक्त होगा। ऋषि दयानन्द ने यह भी बताया है कि जो मनुष्य ईश्वर से प्रार्थना करते हैं परन्तु उसके अनुरूप कर्म, कर्तव्यपालन व आचरण नहीं करते उनकी प्रार्थना पूरी नहीं होती अर्थात् उनका प्रार्थना करना व्यर्थ होता है।
ईश्वर इस जगत का रचयिता, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सुख-दुःखों का दाता और दुःखों को दूर करने वाला है। हर दुःख की स्थिति में हमें उससे प्रार्थना करनी चाहिये और अपनी ओर से भी दुःख निवृत्ति और सुख प्राप्ति के सभी सम्भव उपाय, प्रयत्न तथा कार्य करने चाहिये। ऐसा करने पर हमारे अनेक दुःख दूर हो सकते हैं और दुःखों की निवृत्ति से हमें सुख प्राप्त हो सकते हैं। हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि मनुष्य मरणधर्मा है। हमारे शरीर का धर्म हमें अनुकूल व प्रतिकूल परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर सुख व दुःख प्रदान होना है। अतः हमें प्रतिकूल परिस्थितियों को उत्पन्न नहीं होने देना चाहिये और यथासमय प्रातः व सायं ईश्वर का ध्यान, सन्ध्या, ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना व उपासना सहित दैनिक देवयज्ञ वा अग्निहोत्र भी करना चाहिये। विद्वानों की संगति करनी चाहिये। पात्रों को धन व विद्या का दान देना चाहिये। देशभक्ति से युक्त होकर सज्जन पुरुषों के बल की वृद्धि एवं दुष्टों के बल की हानि करनी चाहिये। सत्यार्थप्रकाश सहित वेद, उपनिषद, दर्शन, मुनस्मृति, रामायण एवं महाभारत आदि उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय व अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करके हम हमने जीवन को दुःख से रहित व सुखों से पूरित कर सकते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य